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जैन साहित्य संशोधक।
[भाग १ व्यक्ति या विचार चार छह महिनेहीमें मुद्रालयों मीयतेऽनेनेति मानं परिच्छिद्यत इत्यर्थः ।अनुश
और समाचारपत्रोंके द्वारा सर्वविश्रुत हो जाता ब्दः पश्चादर्थे, पश्चान्मानमनमानम् । पक्षधर्मग्रहणसम्बहै, उतनी शीघ्रताके साथ उस समयमे नहीं हो न्यस्मरणपूर्वकमित्यर्थः। वक्ष्यति च "त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिपाता था । परंतु ५-१० वर्ष जितनी कालावधिमे
ङ्गिनि ज्ञान ] मनुमानम् ।" तो उस समयमें भी उत्तम विद्वान् यथेष्ट प्रसिद्धि ' प्राप्त कर सकता था। इसका कारण यह है कि इस अवतरणके अन्त में जो वक्ष्यति' क्रिया लिख उस समय जब कोई ऐसा असाधारण पण्डित कर “त्रिरूपाल्लिङ्गाल्लिङ्गिनि ज्ञानमनुमानम् ।" यह तैयार होता था तो फिर वह अपने पाण्डित्यका सूत्र लिखा है उस पर किसी एक पुरातन पण्डिपरिचय देनेके लिये और दिग्विजय करनेके निमित्त तने निम्न लिखित टिप्पणी लिखी है:देश-देशान्तरोंमें परिभ्रमण करता था और इस नन्वेतत्सूत्रं धर्मोत्तरीयं न तु प्रकृतशास्त्रसत्कम्। तरह अनेक राजसभाओंमें और पण्डित-परिषदोंमें एतच्छास्त्रसत्कमेतत्सत्रम्--- लिडं पुनरित्यादि ।' उपस्थित हो कर वहांके अन्यान्य विद्वानोंके साथ तत्कथं वक्ष्यति च ' इति प्राच्यते । सत्यमेतत् । यद्यशास्त्रार्थ या वादविवाद किये करता था । इसी तरह प्यत्रैवं विध सत्रं नास्ति तथा [पि धर्मोत्तरीयसूत्रमजब कोई विद्वान् किसी विषयका कोई खास नवीन .. और अपूर्व ग्रंथ लिखता था तो उसकी अनेक
NG प्यत्र सूत्रोक्तानुमानलक्षणाभिधायिकमेवेत्यर्थतोऽत्रत्यप्रतियां लिखवा कर प्रसिद्ध पुस्तकभांडागारों, धमात्तरायसूत्रयाः
My धर्मोत्तरीयसूत्रयोः साम्यमेवेत्यर्थापेक्षया वक्ष्याति ' इति राजमन्दिरों और धर्मस्थानों में तथा स्वतंत्र विद्वा. व्याख्ययमिति न विरोधः । नोंके पास भेंट रूपसे या अवलोकनार्थ भेजा करता इस टिप्पणीका आशय यह है कि व्याख्याकारने था । इस लिये प्रख्यात विद्वानको अपने जीवन काल जो ऊपरके अवतरणमें " त्रिरूपालिङ्गाल्लिङ्गिनि ही में यथेष्ट प्रसिद्धि प्राप्त कर लेनमें और उसके सामनमानस " यह सत्र लिखा है उसके स्थान में बनाये हुए ग्रंथर दूरोंके द्वाग आलोचन-प्रत्यासोचनके किय जानम कोई आपत्ति नहीं है।
लिङ्गमुनास्त्ररूपम्' यह सूत्र लिखना चाहिए। क्यों कि वह सूत्र तो धर्मोत्तर आचार्यका बनाया हुआ है। दि
ग्नागका नहीं दिग्नागका तो यहीपिछला सूत्र है।ऐसी हरिभद्र और धर्मोत्तर ।
स्थिति होने पर, यहां पर जोधर्मोत्तरीय सूत्र लिखा
गया है उसका समाधान यो कर लेना चाहिए, कि दिग्नागाचार्य रचित 'न्यायप्रवेश-प्रकरण' ऊपर . हरिभद्रने शिष्यहिता नामकी एक संक्षिप्त और स्फुट
पर धर्मोत्तरका सूत्र भी प्रत सूत्रानुरूप ही अनु
८ मानका लक्षण प्रदर्शित करता है, इस लिये इन व्याख्या लिखी है । इस व्याख्याके प्रारंभके 8
दोनों में परस्पर. अर्थसाम्य होनेसे हरिभद्रने जो भागमें जहां ' अनुमान' शब्द की व्युत्पत्ति और
(कदाचित् विस्मृतिके कारण ? ) धर्मोत्तरका सूत्र उसका लक्षण लिखा है वहां एक उल्लेख खास ध्यान लिख दिया है तो उसमें कोई ऐसा विशेष विरोध खींचने लायक है । वह उल्लेख इस प्रकार है:- नहीं दिखाई देता।
यह व्याख्या सेटपीटर्सबर्ग ( अब, पेट्रोग्राड ) से प्रकट टिप्पणीकारके इस समाधानसे न्यायशास्त्रक होने वाली Bibliotheca Buddhica में छप रही है। अभ्यासियोंका तो समाधान हो जायगा परंतु इतिहाइसके बारे में विशेष वृत्तान्त जानने के लिये, 'जैनशासन' सशास्त्रके अभ्यासियोंका नहीं। ऐतिहासिकोंके नामक पत्रके दीपावलीके खास अंकमें छपा हुवा डा. लिये तो इससे एक नया ही प्रश्न ऊठ खडा मिगनीका Dignaga's Nyayapravesas and Haribhadra's Comrnntary on it नामक २ डेक्कनकालेज पुस्तकालयमें की हस्तलिखित प्रति. नं. निबन्ध देखना चाहिए।
७३०, १८७५-७६, पृ. २.
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