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अंक.१]
हरिभद्र सरिका-समय-निर्णय । 'सगकाले वोलीने वरिसाण सएहिं पुत्तहिं गएहिं । सकती है, जिसके बाचनेसे मनुष्यको उत्तरोत्तर रसालाद . एगदिणे प्रणेहिं एस समत्ता वराहम्मिः ॥" आता रहता है । तुमारी रचना तो लेखक (लिपिकर-नि [टिप्पणी:-यह कथा प्रारुत साहित्य में एक अमूल्य रत्न:- हुए पुस्तककी नकल करनेवाला)की तरह मात्र नकर
और हल्के बनाने जैसी है। अपने गुरुभ्राता के ऐसे उपहासात्मक बना पर आज तक किसी शोधक विद्वामकी दृष्टितक नहीं पी । सिद्धर्षिके दिलमे चुभ गये और फिर उन्होंने अष्ट प्रस्ताव इसकी एक प्राचीन हस्खलिखित प्रति, डेक्कनकालेजमें संरक्षिता वाली सुप्रसिद्ध उपमितिभवप्रपंचा कथाकी अपूर्व रचना बम्बई सरकरके सुप्रसिद्ध पस्तकालय में संग्रहीत है। यह कथा की। इस सुबोध कथाके आमदक व्याख्यानको सना चम्पू के ढंग पर बनी हुई है। इसकी रचनाशली वागाकी कर जैन समाज (संघ) ने सिद्धर्षिको मानप्रद ऐसी 'व्या-- हाख्यायिका-या त्रिविक्रमकी नलचम्पू के जैसी है। काव्य. ख्याता' की पदवी समर्पित की । इत्यादि । (देखो, प्रभाकर चमत्कति उत्तम प्रकारकी और भाषा बहुत मनोरम है। कचरित्र, निर्णयसागर, पृष्ठ २०१-२०२ श्लोक ८८-१४) प्राकृतभाषाके अभ्यासियोंके लिये यह एक अमपम ग्रन्थ है। (डॉ. जेकोबी, प्रभावकचरित्रके इस वर्णनको बराबर इस कथा कविने कौतुक और विनोदके वशभित हो कर मुख्यः समझ नहीं सके इस लिये उन्होंने 'कुवलयमाला कथा' को प्राकृत भाषाके सिवा अपभ्रंश और पैशाची भाषामें भी कि सिद्धर्षि ही की रुति समझ कर असम्बद्ध मर्थ लिख दिया है। तनेएक वर्णन लिखे हैं, जिनकी उपयोगिता भाषाशास्त्रियोंकी (देखों, जेकोबी साहबकी उपमितिभव. की प्रस्तावना. दृधिसे और भी अत्यधिक है। अपभ्रंश भाषामें लिख गए. पृष्ठ०१२, तथा परिशिष्ट, पृष्ठ• १०५) इतने प्राचीन वर्णन अभी तक अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त हुएः कुवलयमाला कथाकी प्रशस्तिके देखनेसे मालूम हैं । इस लिये, इस. दृष्टि से विद्वानोंके लिये यह एक बहुत पडता है कि प्रभावक चरित्रके कर्ताका उपर्युक्स कथन वि. महत्वकी चीज़ है । इस कथाका विस्तृत परिचय हम एक. स्कुल असत्य है। क्यों कि कुक्लयमालाकी रचना उपमितिमस्वतंत्र लेख द्वारा देना चाहते हैं। सुप्रसिद्ध आपाय हेमचंद्र वप्रपंचाकी रचनाने १२७ वर्ष पूर्व हुई है, इसलिये दाक्षिसूरिके. गुरुवर श्रीदेवचन्द्रसूरिने 'संतिनाह चरिय' के उपो- ण्यचन्द्र (चिन्ह )का सिद्धर्षिके गुरुभ्राता होनेका और द्घात में, पूर्व कवियों और उनके उत्तम ग्रंथोंकी प्रशंसा करते उक्त रीतिसे उपहासात्मक वाक्योंके कहनेका कोई भी हुए इस कथाके कर्ताकी भी इस प्रकार प्रशंसा की है.- सम्बन्ध सत्य नहीं हो सकता।]. दक्खिन्नइंदसूरि नमामि वरवणभासिया सगुणा. इस कथाके प्रारंभमें बाणभट्टकी 'हर्षाख्यायिका' कुवलयमाल व्व महा: कुवलयमाला कहा जस्सः।। और धनपाल कविको 'तिलकमञ्जरी' आदि कर
इस कथाका संक्षिप्त संस्कृत रूपान्तर-१४ वीं शताब्दीमें थाओंकी तरह, कितनेएक प्राचीन कवि और होनेवाले रत्नप्रभसूरि- नामके एक विद्वान्ने किया है जिसे उनके ग्रन्थोंकी प्रशंसा की हुई है। इस कविप्रशंभावनगरकी जैन आत्मानन्द सभाने छपवा करः प्रकट, सामें, अन्तमें, हरिभद्रसारिकी भी उनकी बना किया है। इस कथा और इसके कर्ताका उल्लेख प्रभावक चरि.
हुई प्रशमरस परिपूर्ण प्राकृत भाषात्मक 'समराह
कहा' के उल्लेख पूर्वक--इस प्रकार प्रशंसा की के सिद्धर्षि प्रबन्धमें आया हुआ है। वहां पर ऐसा वर्णन गई हैलिखा है कि-'दाक्षिण्यचन्द्र नामके सिद्धार्षिक एक गुरु जो इच्छर भवविरह भवविरहं को न बचए सुयणो। भ्राता थे। उन्होंने शृंगाररससे भरी हुई ऐसी कुवलयमाला कथा बनाई थी। सिद्धर्षिने जब'उपदेशमाला' नामक ग्रंथ ऊपर
समयसयसत्थगुरुणो समरामियंका कहा जस्स ।। बालावबोधिनी टीका लिखी तब दाक्षिण्यचन्द्र ने उनका उप
- डेकनका० संगृहीत पुस्तक, पृ. २ । हास करते हुए कहा कि पुराणे ग्रंथोंके अक्षरों को कुछ उलटा ३९ हरिभवसूरिने तो स्वयं अपने इस. गंधका नाम पुलटा कर नया ग्रंथ बनाने में क्या महत्त्व है.? शास्त्र तो 'समराहच्चकहा' अथवा . 'समराहच्चचारिय।' 'स्मरादित्यचरित ' जैसा कहा जा सकता है जिसके पढने (चरियं समराइच्चस्स, पृ. ५, पं. १२) लिखा है, परंतु त्यहा से मनुष्य भूख-प्यासके भी भूल जाते हैं । अथवा मेरी. पर 'समरमियंका' (संक समस्याका) ऐसा नाम उलि. बनाई हुई कुवलयमाला कथा भी कुछ वैसी ही कही जा. खित है, सो इस पाठभेदका कारण समझमें नहीं आता ।
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