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४० जन साहित्य संशोधक
[भाग १ स्वयंसिद्ध हो गया कि, उस वृत्तिको अपने ही वि- परंतु, इधर जब हम एक तरफ ललितविस्तरामें शिष्ट बोधके लिये रची गई माननेवाला शिष्य, चर्चित विषयका विचार करते हैं और दूसरी तरउन आचार्यसे अवश्य पीछे ही के कालमें हुआ फ उपमिति में वर्णित सिद्धषिके आम्तर जीवनका था। हमारे विचारसे, प्रस्तुत श्लोकके उत्तरार्धमें अभ्यास करते हैं तब, इन दोनों ग्रन्थों में, इस ललितविस्तराके विशेषणरूपमें मदर्थे व कृता- प्रचलित प्रवाद की सत्यताका निश्चायक ऐसा कोई (मेरे ही लिये की गई)' ऐसा जो पाठ है उसकी भी प्रमाण हमारी दृष्टि में नहीं आता। ललितधिजगह 'मदर्थेव कृता-(मानो मेरे लिये की गई), स्तरामें यद्यपि अहेवकी आप्तता और पूज्यता ऐसा होना चाहिए । क्यों कि उक्त रीतिस जब बडीगार और हृदयंगमरीति से स्थापित की गई सिद्धर्षि अपना अस्तित्व हरिभद्र के बाद-किसी है, तथापि उसमें ऐसा कोई विशेष विचार नहीं है समयमें-होना सूचित करते हैं तो फिर उनकी जिसके अवलोकनसे, बौद्धन्यायशास्त्र के विशिष्ट कृतिको निश्चयरूपसे (५वकार शब्दका प्रयोग अभ्यासके कारण सिद्धषि जैसे प्रतिभाशाली और कर ) अपने ही लिये बनाई गई कैसे कह सकते जैनशास्त्र के पारदशी विद्वान्का रवधर्मसे चलायहैं ? इस लिये यहां पर 'इव' जैसे उपमावाचक मान हो जानेवाला मन सहजमें पुनः स्थिर होजाय । ( आरोपित अर्थसूचक) शब्दका प्रयोग ही अर्थ हां, यदि हरिभद्र ही के बनाये हुए अनेकान्तजयपसंगत है। बहुत संभव है कि उपमि० की दूसरी ताकादि ग्रंथोके लिये ऐसा विधान किया हुआ हस्तलिखित पुस्तकोंम इस प्रकारका पाटभेद मिल होता तो उसमें अवश्य सत्य माननेकी श्रद्धा उत्पभी जाय।
न हो सकती है । क्योंकि उन ग्रन्थों में बौद्ध शाललितविस्तरावृत्ति सिद्धर्षिको किस रूपम उप- रूके समग्र कुतकोंका बडी अकाट्य युक्तियों कारक हो पडी थी, अथवा किस कारण उन्होंने द्वारा संपूर्ण निराकरण किया गया है। दूसरी बात उसका स्मरण किया है, इस बात का पता उनके यह है कि, यदि सिद्धर्षिका उक्त प्रवादानुसार लेखसं बिल्कुल नहीं लगता। उनके चरित्रलेखक, वैसा जोविश्वविश्रुत धर्मभ्रंश हुआ होता तो उसका जो, बौद्धधर्मक संसर्गक कारण जैनधर्मपरसे उ. जिकर वे उपमिति के प्रथम प्रस्तावमे अपने 'स्वसंवेनका चित्तभ्रंश होना और फिर इस वृत्तिके अव- दन' में अवश्य करते क्यों कि सांसारिक कुवासलोकनसे पुनः स्थिर होना, इत्यादि प्रकारकी बातें नाजन्य धर्मभ्रंशका वर्णन विस्तारके साथ उन्होंने लिखते हैं, वे कहां तक सत्य हैं इसका कोई निर्णय दो तीन जगह किया है (देखो, उप० पृ. ९३,-५४) नहीं हो सकता । ललितविस्तराकी पञ्जिका लि- परंतु दार्शनिक कुसंस्कारजन्य धर्मभ्रंशका उल्लेख बनेवाले मुनिचंद्रसूरि, जोसिद्धार्षसे मात्र २०० वर्ष कहीं भी नहीं किया है । यद्यपि एक जगह, कुतर्कबाद हुए हैं वे भी. इस प्रवादकी पुष्टिमें प्रमाणरूप वाले ग्रन्थ और उनके प्रणेता कुतैर्थिक, मुग्ध जनगिना जाय, ऐसा ही अपना अभिप्राय लिखते हैं। को किस प्रकार भ्रान्त करते हैं और तत्त्वाभिमुख.३६ प्रभावक चरित्रमें 'मदर्थ निर्मिता येन' ऐसा
- तासे किस प्रकार पराङ्मुख बनाते हैं, उसका पाठ मुद्रित है। इसी तरह दूसरी पुस्तकों में उक्त प्रकारका
। उल्लेख आया है (देखो, उप० पृ. ४६); तथापि वह दूसरा पाठ भी मिलना बहुत संभवित है।
सर्वसाधारण और निष्पुण्यककी भगवद्धर्मप्राप्तिके ___३७ मुनिचन्द्रसूरिने पञ्जिका ललितविस्तरा यत्तिकी वि पूर्वका वर्णन होनेसे उस परसे सिद्धर्षिके प्रावावृति करने के लिये अपनी असमर्थता बताते हुए निम्न दिक धर्मभ्रंशका कुछ भी सूचन नहीं होता । अतः लिखित.पद्य लिखा है।
इस बातका हम कुछ निर्णय नहीं कर सके कि ल. 'यो बुद्ध्वा किल सिद्धसाधुरखिलव्याख्यातृचूडामणिः लितविस्तरा वृत्तिका स्मरण सिद्धर्षिने क्यों किया सम्बुद्धः सुगतप्रणीतसमयाभ्यासाचलच्चतनः। यत्कर्तः स्वकृती पुनर्गुरुतया चके नमस्यामसौ
है। हां, इतनी बात तो जानी जाती है कि यह वृत्ति को खेनो विवृणोतु नाम विकृति स्मृलै तथाप्यात्ममः ॥'. उन्हें अभ्यस्त अवश्य थी और इस पर उनकी
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