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हरिकभद्र सूरिका समय-निर्णय । की स्वधर्म ऊपरसे चालत-चित्तताको देख कर उनके कथनानुसार तो सिद्धर्षि और हरिभद्र दोनों अपने मुखसे किसी प्रकारका उन्हें उपदेश देना समकालीन थे और सिद्धर्षिको यौद्ध संसर्गके मुनासब नहीं समझा । उन्होने ऊठ कर पहले सि. कारण स्वधर्मसे भ्रष्ट होते देख कर उनको प्रतिबोद्धर्षिका स्वागत किया और फिर उन्हें एक आसन ध करनेके लिये ही हरिभद्र सूरिने ललितविस्तरा पर बिठा कर, हरिभद्रसूरिकी बनाई हुई ललितवि- वृत्ति बनाई थी। इन ग्रन्थकारोंमें मुख्यकर राजस्तारावत्ति, जिसमें बौद्ध वगैरह सभी दर्शनोंके शेखरसूरिका (सं. १४०५ में बना हुआ) प्रबन्धकोसिद्धान्तोंकी बहुत ही संक्षेपमै परंतु बडी मार्मिक- ष अथवा चतुर्विशतिप्रबन्ध है । इस ग्रन्थमें हरिताके साथ मीमांसा कर जैनतार्थ करकी परमाप्तता भद्रसूरिका जो चरित-प्रबन्ध है उसमें साथमें स्थापित की गई है, उसको पढनेके लिये दी। पुस्तक सिद्धर्षिका भी वर्णन किया हुआ है । इस प्रबन्ध दे कर गर्गमुनि जिनचैत्यको वन्दन करनेके लिये तो सिद्धर्षिको साक्षात् हरिभद्र ही के दीक्षित चले गये और सिद्धर्षिको कह गये कि, जब तक शिष्य बतलाये हैं । गर्गमुनि वगैरहका नामानिर्देश मैं चैत्यवन्दन करके वापस आऊं तब तक तुम इस तक नहीं है । प्रकृत बातके विषयका बाकी सब ग्रन्थको वाचते रहो । सिद्धर्षि गुरुजीके चले जाने हाल प्रायः ऊपर (प्रभावकचरित्र ) के जैसा ही पर ललितविस्तराको ध्यानपूर्वक पढने लगे । ज्यों है । मात्र इतनी विशेषता है कि, बौद्ध गुरुके पासज्यों वे हरिभद्रके निष्पक्ष, युक्तिपूर्ण, प्रौढ और से जब सिद्धर्षि अपनी प्रतिज्ञानुसार, हरिभद्रसूप्राञ्जल विचार पढते जाते थे त्यो त्यो उनके वि. रिको मिलनेके लिये आये तब बौद्ध गुरुने भी उन्हें चारोंमें बडी तीव्रताके साथ क्रांति होती जाती थी। पुनर्मीलनके लिये प्रतिज्ञाबद्ध कर लिये थे । हरिसारा ग्रंथ पढ लेने पर उनका विश्वास जो बौद्ध भद्रसूरिने उनको सद्बोध दिया जिससे उनका संसर्गके कारण जैनधर्म ऊपरसे ऊठ गया था वह मन फिर जैन धर्म ऊपर श्रद्धावान् हो गया। परंतु फिर पूर्ववत् दृढ हो गया, और बौद्ध धर्मपरसे उन- प्रतिज्ञानिर्वाहके कारण वे पुनः एक वार बौद्ध गुरुके की रुचि सर्वथा हठ गई । इतनेमें गर्गमुनिजी चै- पास गये । वहां उसने फिर उनको बहकाया और त्यवन्दन करके उपाश्रयमें वापस आ पहुंचे । सि- वे फिर हरिभद्रसे मिलने आये। हरिभद्रने पुनः द्धर्षि गुरुजीको आते देख एक दम आसन ऊपरसे समझाये और पुनः बौद्धाचार्यके पास गये। इस ऊठ खडे हुए और उनके पैरोंमें अपना मस्तक रख प्रकार २१ दफह उन्होंने गमनागमन किया। आकर, स्वधर्म परसे जो इस प्रकार अपना चित्तभ्रंश खिरमें हरिभद्रने उन पर दया लाकर प्रबलतर्कपूर्ण हुआ उसके लिये पश्चात्ताप करने लगे । गुरुजीने ललितविस्तरा वृत्ति बनाई, जिसे पढ़ कर उनका मिष्टवचनोंसे उन्हें शान्त कर उनके मनको संतुष्ट मन सर्वथा निर्धान्त हुआ और वे जैनधर्म ऊपर किया । अन्तमें वे फिर जैनधर्मके महान् प्रभावक स्थिरचित्त हुए । इसके बाद उन्होंने १६ हजार हुए। इत्यादि । इस प्रकार हरिभद्रके बनाये हुए श्लोक प्रमाण उपमितिभवप्रपञ्चा कथा बनाई प्रन्थके अवलोकनसे सिद्धर्षिकी मिथ्याभ्रान्ति नष्ट और उसके अन्तमें उक्त प्रकारसे हरिभद्रहुई और सद्धर्मकी प्राप्ति हुई इस लिये उन्होंने सूरिकी प्रशंसा की ।२७ हरिभद्रसूरिको अपना धर्मबोधकर गुरु माना और इसी वृत्तान्तका यथावत् सूचक संक्षिप्त उल्लेख ललितविस्तराको मानों अपने ही लिये बनाई गई मुनिसुन्दरसूरिने उपदेशरत्नाकरमे, और रत्नशेखरसमझी । इसके सिवा प्रभावकचरित्रके कर्ता इन सूरिने श्राद्धप्रतिक्राणार्थदीपिका टीका (सं. १४दोनों में परस्पर और किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं ९६) में किया है। दोनो उल्लेख क्रमश इस प्रकार हैं:-- मानते।
२७ देखो, प्रोफेसर मणिलाल नभुभाई द्विवेदीका किया परन्तु, दूसरे कितने एक ग्रन्थकार प्रभावकच- हुआ और बडौदा राज्यकी ओरसे छपाया हुआ 'चतुर्विशीत रित्रके इस कथनके साथ पूर्ण मतैक्य नहीं रखते। प्रबन्ध ' का गुजराती भाषान्तर, पृ. ४७-४८।
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