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हरिभद्र सारिका समय निर्णय ।
नहीं ज्ञात हो सकता कि, वीर, विक्रम, शक, गुप्त इस कथाकी प्रशस्तिमें सिद्धर्षिने प्रारंभमें आदि संवतोमेसे प्रस्तुतमें कौनसा संवत् कथा- ९ श्लोकों द्वारा अपनी मूल गुरुपरंपराका उल्लेख कारको विवक्षित है; तथापि, संवत् के साथ माल, कर, फिर हरिभद्रसूरिकी विशिष्ट प्रशंसा की है तिथि, वार और नक्षत्रका भी स्पष्ट उल्लेख किया और उन्हें अपना धर्मबोधकर गुरु बतलाये हैं। हुआ होनेसे, ज्योतिर्गणितके नियमानुसार गिनती प्रशस्तिमें हरिभद्रकी प्रशंसावाले निम्नलिखित तीन करने पर, प्रकृतमे विक्रम संवत् ही का विधान पद्य मिलते हैं। - किया गया है, यह बात स्पष्ट मालूम पड आती है। (१५) आचार्यहरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः । सिद्धर्षिके लिखे हुए इस संवत्, मास और तिथि प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्ये निवेदितः ॥ आदिकी तुलना ई. स. के साथ की जाय तो, गाणि ।
(१६) विषं विनिर्धूय कुवासनामयं त करनेसे, ९०६ ई. के. मई महिनेकी १ ली तारिखके बराबर इसकी एकता होती है । इस तारी
व्यचीचरद् यः कृपया मदाशये। खको भी वारगुरु ही आता है और चन्द्रमा भी
अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां
नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥ सूयादयसे लेकर मध्यान्ह कालक बाद तक पुनर्वसु नक्षत्र ही में रहता है ।२४
(१७) अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया। . २४ किसी किसीकी कल्पना इस संवत्को वीर-निर्वाण-संवत् मदर्थैव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥२६ माननेकी होती है। अगर इस कल्पनाके मुताबिक गणित इन पद्योंका भावार्थ इस प्रकार हैकरके देखा जाय तो वीर सं. ९६२ के ज्येष्ठ शुक्ल ५ मीके (१५) आचार्य हरिभद्र मेरे धर्मबोधकर-धर्मदिन ई. स. ४३६ के मई मासकी ७ वी तारीख आता का बोध (उपदेश) करनेवाले-गुरु हैं । इस है। वार उस दिन भी गुरु ही मिलता है, परंतु चन्द्रमा उस कथाके प्रथम प्रस्तावमें मैंने इन्हीं धर्मबोधकर दिन प्रातःकालमें २ घंटे तक पुष्य नक्षत्र में रह कर फिर गुरुका निवेदन किया है।। अश्लेषा नक्षत्रमें चला जाता है। इस लिये नक्षत्र उस दिन (१६) जिसने कृपा करके अपनी अचिन्त्य ग्रंथमें लिखे मुताबिक नहीं मिलता। इसके सिवा इस शक्तिके प्रभावले मेरे हृदयमेंसे कुवासना-दुर्वि. कल्पनामें एक बडा और प्रत्यक्ष विरोध भी है । उक्त २५ डॉ. जेकोबी. इन पदोंोके पहलेके और ३ ( नं. प्रारुत गाथामें जो हरिभद्रका मृत्युसमय बतलाया गया है
१२-१३-१४ वाले) श्लोकोंको भी हरिभद्र है। की प्रशंसामे उससे, यह समय लगभग १०० वर्ष जितना उलटा पीछे
लिखे हुए समझते हैं और उनका भाषान्तर भी उन्होंने चला जाता है- अर्थात् सिद्धर्षि हरिभद्रके भी शतवर्ष पूर्व
अपनी प्रस्तावना ( पृ. ५) में दिया है । परंतु यह डॉ. वर्ती हो जाते हैं 1 सिद्धर्षिका, जैसा कि आगे चल कर बत
साहबका भ्रम है । उन तीन पद्योंमें हरिभद्रकी प्रशंसा नहीं लाया जायगा, हरिभद्रके पहले होना सर्वथा असिद्ध है।
है परंतु सिद्धर्षिकी प्रशंसा है । इनके पूर्वके दूसरे दो (नं. इस लिये सिद्धर्षिका लिखा हुआ यह संवत् विक्रम ..११) श्लोकों में भी सिद्धर्षि ही का जिकर है। वास्तवमें संवत् ही है।
हमारे विचारसे नं. १० से १३ तकके ४ पद्य स्वयं सिद्धप्रो. पिटसनने अपनी ४ थी रीपोर्टके ५ वें पष्ठ ऊपर सिद्धर्षिके इस संवत्को वीरनिर्वाण संवत् मान कर, और
र र्षिके बनाए हुए नहीं है, परन्तु उनके शिष्य या अन्य किसी उसके मुकाबले में विक्रम संवत् ४९२ के बदले ५९२ दूसरे विद्वान्के बनाये हुए हैं। अतएव वे वहां पर प्रक्षिप्त हैं। कर गाथाक्त हरिभद्र के समयके साथ मेल मिलाना चाहा है।
सिद्धर्षि, स्वयं अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करनेवाले बहिपरंतु इस गिनतीमें तो प्रत्यक्ष रूप से ही १०० वर्ष की भट्टी
मुख आत्मा नहीं थे। वे बड़े नम्र, लघुताप्रिय और अन्याभल की गई है। क्यों कि ९६२ में से ४७० वर्ष निकाल
त्मस्वरूपमें लीन रहनेवाले सन्त पुरुष थे। वे अपने लिये देनेसे, शेष ४९२ रहते हैं, ५९२ नहीं। इस लिये पिटर्सन
'सिद्धान्तनिधि'' महाभाग ' और 'गणधरतुस्य' जैसे साहबकी कल्पनामें कुछ भी तथ्य नहीं है। डॉ. जेकोबीने मानभरे हुए विशेषणोंका प्रयोग कभी नहीं कर सकते। भी इस कल्पनाको त्याज्य बतलाया है। देखो, उपमितिभव- २६ उपमितिभवप्रपञ्चा कथा. (बिब्लिओथिका इन्डिका.) प्रपंचाकी प्रस्तावना-पृष्ठ ८ की पाद टीका।
पृ. ११४॥
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