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जैन साहित्य संशोधक।
[भाग १ [टिप्पणी-हरिभद्रसूरिके गुरुके नामके सम्बन्धमें डॉ. क्यों न हो-उनके विषयमें कई प्रकारकी भिन्न भिन्न जेकोबा और अन्य कई विद्वानोको एक खास भ्रम हो रहा बातें लिखी हुई अवश्य मिलती हैं। हमारे इस ले. है। वे हरिभद्रके गुरुका नाम जिनभद्र या जिनभट समझते खका उद्देश्य हरिभद्र के चरितवर्णन करनेका नहीं है। डॉ. जेकोबीने, जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटोके, ४० वें है, इस लिये, इस बारेमें हम कोई विशेष बात नहीं जर्नल ( पुस्तक ) में, पृ. ९४ पर, यह दिखलानका प्रयत्न लिखना चाहते । परंतु, पाठकोंके सूचनार्थ, मुख्य किया है कि, भाचाराडसूत्रकी टीका बनानेवाले आचार्य कर जिन जिन प्रथोंमें ह ने हरिभद्र के जीवनसम्बशीलाङ्क और हरिभद्र दोनों गुरुबन्धु थे-एक हो गुरुके न्धी छोटे बडे उल्लेख देखे हैं उनके नाम यहां पर शिष्य थे। क्यों कि दोनोंके गुरुका नाम जिनभद्र या जिन- निर्दिष्ट किये देते हैं। भट है । और इसी लिये वे दोनों समकालीन भी थे । परंतु इन ग्रंथों में सबसे विशेष उल्लेख योग्य प्रभाचन्द्र उनका यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि इस आवश्यक सन- चित प्रभावक चरित्र है। यह ग्रंथविक्रमसंघत३३४ की टीकाके अन्तिम वाक्यसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि हरिभद्र में बना है। इस प्रथके ९वै प्रबन्धम, उत्तम प्रकारकी के दाक्षाप्रदायक गुरु तो विद्याधर गच्छोय आचार्य जिनदत्त काव्यशैलीम, विस्तारपूर्वक हरिभद्रका चरित घथे। जिनभट सूरि या तो हरिभद्र के विद्यागुरु होंगे या अन्य र्णित किया हुआ है (-इस चरितमें कही गई बात किसी कारणसे उन्हें वे अपने विशेष पूज्य समझते होंगे। कहां तक सत्य हैं उसके बारेमे हम अपना कुछ भी इसी लिये, इस उपर्युक्त वाक्यमें उन्होंने प्रथम जिनभटका आभप्राय यहां पर नहीं दे सकते)। इस प्रथके नामोल्लेख किया है और अपने को उनका आज्ञाधारक (-निग- बाद राजशेखरसूरिके (वि. सं. १४०५ में) बनाये दानुसारिणो ) बतलाया है। इस प्रकार जिनभट और जिन- हुए प्रबन्धकोष नामक ऐतिहासिक और किम्वददत्त दोनों हरिभद्र के समान पूज्य होनेके कारण कहीं तो न्ती स्वरूप कितनेएक प्रबन्धाके संग्रहात्मक प्रथम उन्होंने जिनदत्त सूरिका (जैसा कि समराहच्चकहाके अं. भी इनके विषयमे कितनाएक वर्णन किया हुआ तमें ) उल्लेख किया है और कहीं जिनभट सूरिका । ( देखो, मिलता है । हरिभद्रसूरिके जीवनसम्बन्धमें कुछ प्रज्ञापनासूत्रवृत्तिका अन्तिम पद्यः किल्होंने साहबकी रिपोर्ट, विस्तारके साथ बातें इन्हीं दो पुस्तकोमें लिखी हई पृ. ३१) । प्रभावक चरित्र आदि ग्रंथोंमें यद्यपि हरिभद्र के मिलती हैं । संक्षेपमें तो कुछ उल्लेख, इन ग्रंथोंके गुरुका नाम मात्र जिनभट ही लिखा हुआ मिलता है, परंतु पूर्व बने हुए ग्रंथोंमें भी कहीं कहीं मिल आते हैं। उसके कथनकी अपेक्षा साक्षात् ग्रंथकारका यह उपर्यक्त ऐसे ग्रंथोमे, काल-क्रमकी दृष्टिले, प्रथम ग्रन्थ मु
। विशेष प्रामाणिक होना नाशिक निचंद्रसाररचित उपदेशपद (जो हरिभद्रही का जो उनके गुरुका नाम जिनभद्र बतलाया है वह इस उल्लखेस बनाया हुआ एक प्रकरण ग्रंथ है) की टीकों है। नान्तिमूलक सिद्ध हो जाता है। जिनभट और जिनभद्र शब्दके इस टीकाके अंतमे, बहुत ही संक्षेपमें,-परंतु प्रभाबोलने और लिखने में प्राय: समानता ही होनेके कारण, इस वक चरित्रकारने अपने प्रबन्धमे जितना चरित भ्रान्तिका होना बहुत स्वाभाविक है। रही बात. शीला वर्णित किया है उसका बहुत कुछ सार बतलानेऔर हरिभद्रके समकालीन होनेकी, सो उसका निर्णय तो वाला-हरिभद्रके जीवनका सूचन किया है। दूसइस निबन्धका अगला भाग पूर्ण पढ लेने पर अपने आप रा ग्रंथ, भद्रेश्वरसूरिका बनाया हुआ प्राकृतभाषाहो जायगा।]
- मय कथावली नामक है । इसमें चौवीस ही तीआवश्यकसूत्रकी टीकाके उपर्युद्धत अंतिम उल्ले- ११ यह टीका वि. सं. ११७४ में समाप्त हुई थी। खसे आधिक कोई बात हरिभद्रने अपने किसी १२ यह ग्रंथ कब बना इसका कोई उल्लेख नहीं मिला। ग्रंथमें नहीं लिखी । इस लिये उनके जीवनके बारेमें रचनाशैली और कर्ताके नामसे अनुमान होता है कि १२ इससे अधिक कोई बात, उन्हींके शब्दों में मिल सके, वीं शताब्दीमें इसका प्रणयन हुआ होगा। इस शताब्दीमें ऐसी आशा रखनी तो सर्वथा निरर्थक है। परंतु भद्रेश्वर नामके दो तीन विद्वानोके हो जाने के उल्लेख मिलपिछले कई ग्रंथों में-चाहे किम्बदन्ती ही के रूपमे ते हैं।
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