________________
जैन साहित्य संशोधक
[ भाग १
एक सुधारकना जेटलो प्रवादी बनी जवाना जोख. असंभवित लागे छे. बीजी ए पण बाबत लक्ष्यमां मने उपाडवानी अवश्यकता रहेती नथी. हवे वक्षत राखवा योग्य छ के जैन धर्ममां बे संप्रदायो थया जतां ज्यारे महावीरना ते प्रतिस्पर्धिओ आ जगत- पछी तेना तत्त्वज्ञानमा बीलकुल फेरफार थयो न मांथी अदृश्य थई गया हता, तथा तेओ द्वारा स्था. होतो--अर्थात् ते तद्दन स्थिरज रह्यं हतुं. आनु पित थएला संप्रदायो पण नामशेष थई गया हता, प्रमाण मात्र एज छे के आ बन्ने संप्रदायोना तत्त्वत्यारे महावीरना ए प्रवादो, के जे तेमना गणध- ज्ञानमां कोई विशेष उल्लेखयोग्य भेद नजरे पडतो रोए स्मरणमा राख्या हता तथा तेओ द्वारा पाछ- नथी. आचारशास्त्रना विषयमां अलबत आ बन्ने ळनी शिष्यपरंपराने पण जे सोपवामां आव्या संप्रदायोमां केटलाक भिन्न भिन्न विचारो जोवामां हता, ते पाछळना लोकोमा महत्त्ववाळा न मनाया आवे छे, परंतु, अत्यारे पण ज्यारे श्वेताम्बरोमां होय ए स्वाभाविक छे. ए कोण कही शके एम छे लांबा समयथी, तेमना वर्तमान सिद्धान्तसमूहमां के जे एक जमानामां आ प्रकारना दार्शनिकोना विहित थरला घणाक आचारोनुं पालन बंध थएल तत्त्वज्ञान विषयक विविध प्रवादो अने कलहो होवां छतांपण तेओ तेनातरफ उपेक्षा धरावता नथी व्यावहारिक उपयोगितावाळा जणाया होय तेज प्र. त्यारे तेवाज कारणने लईने ते वखते अस्तित्व वादो अने कलहो, सर्वथा परिवर्तित थएला पवा भोगवता एवा तेमना पूर्वात्मक सिद्धान्तसमूह अन्य जमानामां पण तेवाज उपयोगी सिद्धान्तो ना विषयमां श्वेताम्बरोए तेटला बधा आवेशमां तराकमनाई शक? आज विचारानुसार, नवा आवी जई पोताना पर्व साहित्यनो सवेथा त्याग जमानाना जैनसमाजने पोतानी सामायिक परि. सुधां करी नांख्यो हतो एम मानवू युक्तिसंगत • स्थितिने अनुकूल आवे तेवा एक नवा सिद्धान्तनी जणातं नथी: आ उपरांत नवा सिद्धान्तनो जे समजरूर जणाई हशे अने तेने परिणामे, मारूं मानवू य आपणे उपर निर्णीत कर्यो छे, ते समय पछी पण छे के, नवा सिद्धान्तनी रचना अने जूना सिद्धा- लांबा वखत सुधी पर्वो विद्यमान हतां एम मानवान्तना ( पृवाना ज्ञाननी) उपेक्षा थवा पामी हशमां आवे छ परंत, आखरे ज्यारे पूर्वांना प्रवादमय
प्रो. वेबर' दृष्टिवाद अंगने नष्ट थवामां एवं कारण साहित्य करतां नवा सिद्धान्तद्वारा जैन तत्त्वो जणावे छ के श्वेताम्बर समाज ज्यारे एक समये वधारे स्पपरीते प्रकाशित थता देखावा लाग्यां अने एवी अवस्थाए आवी पहोच्यो हतो के जे वखते वधारे व्यवस्थासर लोको समक्ष मूकावा लाग्यां तेने पोताना (प्रचलित ) विचारो अने ते ग्रन्थमा त्यारे पर्वो स्वभाविक रीते ज, नहीं के तेमनी (दृष्टिवादमां ) आलेखित विचारोनी वच्चे अत्यंत बुद्धिपूर्वक कराएली उपेक्षाने लीधे, अदृष्ट थयां अनुपेक्षणीय अंतर स्पष्ट देखावा लाग्युं, त्यारे ए ता. चौट पोवाळं दृष्टिवाद अंग उपक्षान पात्र थयु हतु आणी प्रस्तत चर्चा जे आस्थळ समाप्त थाय परंतु, प्रो. वेबरनी आ कल्पनानी विरुद्ध, श्वेताम्बरोनी माफक दिगम्बरो पण, पोतानम पूर्वो अने छ
छते उपरथी, धारूं छं के. आटली बाबतो ते उपरांत अंगो सुद्धांने व्युच्छिन्न थएलांजणावता प्रकटरीते सिद्ध थएली छः-जैनधर्मनी उत्क्रांति होवाथी, हं तेमना मतने मळतो थई शकतोनधी (प्रगति ) कोईपण समये काइपण अत्यंत असातमज निवाणनी तुरतज पछीनी बे शताब्दिमां जैन धारण एवा बनावाथी, जबरदस्त अटकाव पामेली समाज पटली बधी झडपथी प्रगति करी लीधी नथी. बीजं ए के आपणे आ उत्क्रांतिनी शरुआतनी होय के जेथी ते समाजना बन्ने मुख्य संप्रदायोने अवस्था उपरांत तेनी सथळी विविध अवस्थाओनो पोताना पूर्व सिद्धान्तनो त्याग करवा जेटली आव
पत्तो मेळवो शकीए छीए, अनेत्री ए के जैनधर्म ए
निर्विवादरीते स्वतंत्र मनाता एवा कोई पण धर्मनी श्यकता जणाई होय, एम पण मानी बेस तदन
माफक स्वतंत्ररीते उत्पन्न थएलो छे-परंतु कोई १. Indische Studien, IVI. p. 248. अन्य धर्म अन खास करीने बौद्धधर्मनी शाखा रूपे
Aho! Shrutgyanam