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जैन साहित्य संशोध
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योंके आप अध्यक्ष और सदस्य आदि समय समय पर नियुक्त किये गये थे ।
कलकत्ते में, शास्त्रविशारद जैनाचार्य विजयधर्मसूरिजीसे आपकी मुलाखात हो गई थी जिससे आपको जैनसाहित्यसे भी बहुत कुछ परिचय मिल गया था । आप उक्त जैनाचार्यजीके बडे प्रशंसक थे और उनकी प्रेरणासे आपने कलकत्ताविश्वविद्यालय के पठनक्रममें जैनसाहित्यको भी कुछ स्थान दिलाया था । जैन न्यायके इतिहास विषयक उपर्युक्त पुस्तकके सिवाय जैनसाहित्य के प्रथम तर्क ग्रन्थ न्यायावतारका आपने अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है । भारतके दर्शन शास्त्रोंके इतिहासमै आपको बडा रस था और इस लिये इस विषय में आपने अंग्रेजी और आपनी मातृभाषा बंगला में अनेक छोटे बडे निबन्ध लिखे हैं ।
जैन साहित्यविषयक आपका प्रेम देख जैन स माजने भी आपका यथोचित गौरव किया था । सन् १९१३ में बनारस में जो अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महासभाका अधिवेशन हुआ था उसके आप अध्यक्ष बनाये गये थे और सभाने आपको 'जैन सिद्धान्त महोदधि' की उपाधि समर्पित कर सत्कृत किया था । इसके अगले वर्ष जब जोधपुर में जैनसाहित्य सम्मेलन हुआ तब भी आप उसके सभापति नियत किये गये थे ।
गतवर्ष जब यहां पर ( पूनेमें ) ' प्रथम प्राच्यवि यापरिषद्' हुई थी तब आप यहां पर भी आये थे और परिषद् के पालीभाषा और बौद्ध साहित्य विषय क विभाग के अध्यक्ष बनाये गये थे। उस समय हमारी भी आपसे भेंट हुई थी और परिषद् में जब हरिभद्रसूरिका समय निर्णय विषयक हमारा लेख पढ़ा गया तब खास तौर से उसे सुननेके लिये आप वहां पर उपस्थित हुए थे । हरिभद्रसूरिके समय विषय में आपका और हमारा मतभेद था । इसलिये इस विषय में खास चर्चा करनेके लिये, उक्त परिपकी समाप्तिके दिन आप उत्कंठापूर्वक हमारे स्थानपर भी आये थे; और बहुतसी बातचीत कर बडे प्रसन्न हुए थे । चलते समय आप हमसे आग्रह कर गये थे कि, जब हमारा उक्त निबन्ध
[ भाग १
छपकर प्रकाशित हो जाय तो तुरन्त उसकी एक प्रति आपके पास भेज दी जाय, कि, जिससे आप आपनी जैन न्यायके इतिहास विषयक उपर्युक्त पुस्तककी दूसरी आवृत्तिमें, जो वर्तमानमें छप रही है, हरिभद्रे सूरिके समयवाला लेख ठीक सं. शोधित कर दिया जा सके । परन्तु खेद है कि, हमारे उस निबन्धके प्रकाशित होनेके पहले ही, गत २५ अप्रैलको आप इस क्षणभंगुर संसारको छोड़कर स्वर्ग में जा बसे ।
आपकी इस अकालमृत्युसे भारतवर्ष के विद्याव्यसनी विद्वानोंमेंसे एक बडी भारी व्यक्ति अदृश्य हो गई और जैन साहित्यका एक प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पण्डित लुप्त हो गया ! [ २
हमें इन पंक्तियों के लिखते हुए अत्यन्त दुःख होता हैं कि, इस पत्रके प्रथम अंकमें, जिन प्रो० सी. वी. राजवाडेका 'जैनधर्मका अध्ययन' शीर्षक लेख प्रकट हुआ है और जिनका संक्षिप्त परिचय हमने उसी अंकके 'सम्पादकीय विचार' वाले एक नोटमें दिया है, वे आज इस संसार में नहीं है। गत ८ मईको नाशिकमै जहां पर आरोग्यप्राप्ति के लिये पि. छले कुछ महिनोंसे आप विश्रान्ति ले रहे थे, आपका शरीरपात हो गया जैन साहित्य संशोधक के गतांक प्रकाशित उक्त लेख और हमारे नोटको आप देख भी नहीं पाये । यह किसको कल्पना थी कि इस प्रस्तुत अंकमें हमें अपने पाठकोंको आपका कोई विशिष्ट लेख भेंट करनेके बदले आपकी मृत्युके लिये दुःखोद्वार भेंट करने पडेंगे । कालस्य कुटिला गतिः ।
राजवाडेजी बडे बुद्धिशाली और एक होनहार विद्वान् थे । आपको प्रेज्युएट हुए अभी पूरे १० वर्ष भी नहीं हुए थे । सन् १९१२ में यहां (पूना) के फर्ग्युसन कॉलेजमें अध्ययन समाप्त कर आपने बी. एस्. सी. की डिग्री प्राप्त की और १९१४ में पाली और अंग्रेजीकी एम्. ए. परीक्षा पास की। इसके बाद तुरन्त ही आप बरोडा कालेज में पाली और अंग्रेजीके प्रोफेसर नियुक्त हुए। वहां आपने अपने अध्यापन कार्यके सिवाय पालीसाहित्य के
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