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अंक २ ]
हुंचा जहां चारों दिशाओंमेंसे असंख्य मनुष्य आ आकर उस संबमें शामिल हुए। फिर शुक्लपक्ष के चंद्र की तरह दिन प्रतिदिन वह समुदाय इस प्रकार अन्यान्य स्थानोंसे आनेवाले जनसमूहसे खूब
तीर्थयात्रा के लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन
बढ़ता गया ।
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संघमें सबसे आगे रथारूढ देवालय मन्दिर ) चलते थे, जो खूब ऊंचे होकर सोनेके कलश और ध्वजा दंडादिसे अलंकृत थे कुशल कारीगरोंकी की हुई अनेक प्रकारकी चित्र विचित्र रचनाओंके कारण देखनेवालेको चमत्कृत बनाते थे और जिनके अंदर भव्य आकृतिवाली जिन प्रतिमायें सुशोभित थीं ।
देवालयोंके पीछे पीछे, सूर्यके समान तेजस्वी ऐसा गुणराज सेठ चलता था जिसके आगे बज नेवाले बाजों के प्रतिध्वनिसे रास्ते में आनेवाले बडे बडे पहाड़ शद्वायमान हो जाते थे । संघपति के पीछे पीछे, संघमैके अन्यान्य बडे बडे धनाढ्य लोक चलते थे जो राजाओं के उचित ऐसे सुखा सनोंमें बैठे हुए थे और जिनकी अगल-बगल में नोकर लोक अबदागिरीयां लेकर चलते थे । अन्य बाकी सैकडों ही लोक घोडे जुडे हुए रथोंमें बैठे हुए चलते थे कि, जिन रथोंके घोड़ों की खुरियोंसे तथा पहियोंसे उडती हुई धूलके कारण सारा
आकाश ढंकसा जाता था ।
भटके हुंकारोंसे, घोडोंकी हिनहिनाटोसे और मेरी नफेरी आदि बाजोंके घोर शब्दसे, देखनेवालेको मानों यह प्रतीत होता था कि कलिकाल अब इस जगत् में से नष्ट हो गया है और फिर सत्युगका संचार हो रहा है । उस संघके साथ इतनी गाडियां थीं कि जिनके भारले दबकर ही मानों शेषनाग पातालमें चला गया है और कुलाचल कम्पित हो रहे हैं । संघके साथ इतने रथ, सुखासन, पालखियां, घोडे और मनुष्य आदि थे कि जिनकी संख्या कोई बडा विद्वान् भी नहीं कर
सकता था ।
संघपति गुणराज सेठके महीरान, गजराज, कालू. बाला और ईश्वर नामके पांच पुत्र थे, जो सिंहके समान पराक्रमी और कामके समान रूप बानू थे। ये पांचों पुत्र संघकी रक्षासंबंधी सारी
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व्यवस्था रखते थे और सुभटांके साथ इनमें से कोई संघके आगे, कोई पीछे और कोई अगलबगल में चलता था। इनका पराक्रम और तेज इतनाथा कि राजा और राणा भी आकर इनके पैरों में पडते थे ।
जिस जिस गांव और नगर में सं० गुणराजका वह संघ पहुंचता था वहां के मलिक और राणक आदि सब अधिकारी लोक भेंटें ले लेकर संघ के सामने आते थे और जमीनपर सिर टेककर उसको प्रणाम करते थे ।
गुणराज सेठके इस महान् संघको देखकर लो कोंके मनमें, पुराणे ग्रन्थोंमें वर्णन किये हुए संप्रतिराजा, कुमारपालराजा और महामंत्री वस्तुपाल आदिके संघोंका स्मरण हो आता था और क्षणभर उनको यही भास हो जाता था कि क्या यह राजा संप्रति, या कुमारपाल, अथवा मंत्री वस्तुपाल ही तो संघ लेकर नहीं आ रहा है ? इस प्रकार महान् ठाठके साथ चलता हुआ गुणराजका वह संघ क्रमसे धुंधुका शहरमें पहुंचा । इत्यादि ।
खरतर गच्छके महोपाध्याय जयसोमके उपदेशसे सिंधके फरीदपुर नगरसे, वि. सं. १४८४ में, पंजाब के प्रसिद्ध प्राचीन स्थान कांगडेके जैन मंदि -
की यात्राके लिये जो संघ निकला था उसका बहुत ही मनोरंजक वर्णन, हमारी संपादन की हुई विज्ञप्ति - त्रिवेणी नामक पुस्तकमें किया हुआ है, जिसमेका कुछ भाग प्रकृतोपयोगी होनेसे यहां पर दिया जाता है ।
"संघको चलते समय बहुत अच्छे और अनुकूल शकुन हुए। फरीदपुरसे थोड़ी ही दूरी पर विपासा ( व्यासा ) नदी थी । उसके किनारोंपर, जहां जाम्बु, कदम्ब, नीम्ब, खजूर आदि वृक्षोंकी गहरी घटा जमी हुई थी और नदीके कल्लोलोंसे ऊठी हुई ठंडी वायु मन्द मन्द गीतसे चली आती थी, ऐसे चांदिके जैसे चमकिले रेती मैदान में संघने अपने प्रयाणका पहला पडाव किया। दूसरे दिन नदीको पार करके जालंधर की ओर संघने प्रस्थान किया । संघमें सबसे आगे सिपाही चलते थे जो मार्ग में रक्षणके निमित्त लिये गये थे । उनमें से किसीके
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