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अंक २]
जैनेन्द्र स्माकरण और आचार्य देवनन्दी
उक्त प्रमाणासे यह तो निश्चय हो गया कि तबतक हमें देवनन्दिको कुन्दकुन्दाम्नाय और जैनेन्द्र के कर्ता विक्रम सं० ८.. से पहले हए देशीयगणके आचार्य वदननन्दिका शिष्य हैं । परंतु यह निश्चय नहीं हुआ कि कितने शिष्य मानने में कोई दोष नहीं दिखता । उनका पहले हुए हैं। इसके लिए आगेके प्रमाण देखिए। समय विक्रमकी छठी शताब्दिका प्रारंभ भी प्रायः
५-मर्करा ( कुर्ग ) में एक बहुत ही प्राचीन ताम्रा निश्चित समझना चाहिए। पत्र मिला है । यह शक संवत:८८ (वि०सं०५२३) ६-इस समयकी पुष्टिमें एक और भी अच्छा का लिखा हुआ है। उस समय गंगवंशीय राजा प्रमाण मिलता है। वि० सं०९९० में बने हुए 'द. आविनीत राज्य करता था। अविनीत राजाका ना- र्शनसार नामक प्राकृत ग्रन्थमें लिखा है कि पूज्य. म भी इस लेख में है। इसमें कुन्दकुन्दान्वय और पादके शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं०५२६ में दक्षिण देशीयगणके मुनियों की परम्परा इस प्रकार दी हुई मथुरा या मदुरामें द्राविडसंघकी स्थापना की:-- है:-गुणचन्द्र-- अभयनन्दि-शीलभद्र-शाननन्दि
सिरिपुज्जपादसामा दाविडसंबस्स का (गो दुलो । गुणनन्दि और वदननन्दि । पूर्वोक्त अविनीत राजा
णामण वज्जणंदी पाहडवेदी महासत्यो । के बाद उसका पुत्र दुर्धिनीत राजा हुआ है । हिस्ट्री
पंचसए छव्वीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । आफ कनडी लिटरेचर नामक अंगरेजी ग्रन्ध और
दविखणमहराजादो दाविडसंबो महामोहो । 'कर्नाटककावचरित्र' नामक कनडी ग्रन्थके अनु
इससे भी पूज्यपादका समय वही छठी शता. सार इस राजाका राज्यकाल ई० सन १८२ से ५१२ (वि०५३९-६९) तक है। यह कनडी भाषाका
ब्दिका प्रारंभ निश्चित होता है। कवि था। भारविके किरातार्जुनीय काव्यके १५ वै
प्रो. पाठकके प्रमाण। सर्गकी कनडीटीका इसने लिखी है। कर्नाटककविचरित्रके कर्ता लिखते हैं कि यह राजा पूज्य
सुप्रासद्ध इतिहास पं.काशीनाथ बापूजी पाठक
ने अपने शाकटायन व्याकरणसम्बन्धी लेखमे कुछ पाद यतीन्द्रका शिष्य था । अतः पूज्यपादको हमे विक्रमकी छठी शताब्दिके प्रारंभका ग्रन्धकर्ता मा
प्रमाण ऐसे दिये हैं जिनसे ऐसा भास होता है कि
जैनेन्द्र के समयका मानो अन्तिम निर्णय हो गया। नना चाहिए। मर्कराके उक्त ताम्रपत्रसे भी यह
इन प्रमाणोंको भी हम अपने पाठकोंके सम्मुख यात पुष्ट होती है। वि. संवत् ५५३ में अविनीत राजा था। इसके १६ वर्ष बात वि० सं० ५३९ में
उपस्थित करदेना चाहते हैं; परन्तु साथ ही यह
भी कह देना चाहते हैं कि ये प्रमाण जिस नविपर उसका पुत्र दुर्विनीत राजा हुआ होगा, अतएव उ..
खड़े किये गये है, उसमें कुछ भी दम नहीं है ।जैसा सका जो राज्यकाल बतलाया गया है, वह अवश्य
कि हम पहले सिद्ध कर चुके है जैनेन्द्रका असली डीक होगा। और जिन वदननन्दिके समय उक्त ताम्रपत्र लिखा गया है, संभवतः उन्हींकी शिष्य
सूत्रगाठ वही हैं जिसपर अभयनन्दिकी महावृत्ति
रची गई है: परन्तु पाठक महोदयने जितने प्रमाण परम्परामै बल्कि उन्हीं के शिष्य या प्रशिव्य जैनन्द्रके।
दिये हैं, वे सब शब्दार्गवचन्द्रिकाके सूत्रपाठको कर्ता देवनन्दि या पूज्यपाद होंगे । क्यों कि ताम्रपत्र की मुनिपरम्परा नन्यन्त नाम ही अधिक हैं, और
- असली जैनेन्द्रसूत्र मानकर दिये है। इस कारण
वे तबतक ग्राह्य नहीं हो सकते जबतक कि पुष्ट इनका भी नाम नन्यन्त है। इतना ही नहीं बल्कि
• प्रमाणांसे यह सिद्ध नहीं कर दिया जाय कि शब्दा. इनके शिष्य वन्ननन्दिका नाम भी नन्यन्त है । अतः
णवचन्द्रिकाका पाठ ही ठीक है और इसके विरुद्धमें जबतक कोई प्रमाण इसका विरोधी न मिले,
दिये हुए हमारे प्रमाणोंका पूरा पूरा खण्डन न कर १ इंडियन एण्टक्वेरी, जिल्द १, पृष्ट ३६३-६५ और दिया जाय । एपिग्राफिका कर्नाटिका, जिन्द १ का पहला लेख । २ आर. . नरसिंहाचार्य, एम० ए० रुत ।
१ देखो इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ४३, पार २०५-१२।
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