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अंक २]
जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी का नाम शब्दार्णव-प्रक्रिया ही होगा। हमें इसकी तीसरे पद्यमें भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति दे. कोई हस्तलिखित प्रति नहीं मिल सकी । जिस वकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे तरह अभयनन्दिकी वृत्तिके बाद उसीके आधारसे मेरे मनरूप मानससरोवरमें राजहंसके समान चिरप्रक्रियारूप पंचवस्तु टीका बनी है, उसी प्रकार काल तक विराजमान रहे । इसमें भी प्रस्थकर्ता सोमदेवकी शब्दार्णव-चन्द्रिकाके बाद उसीके आपना नाम प्रकट नहीं करते हैं; परन्तु अनुमानसे आधारसे यह प्रक्रिया बनी है। प्रकाशकोंने इसके ऐसा जान पडता है कि ये श्रुतकीर्तिदेवके कोई कर्ताका नाम गुणनन्दि प्रकट किया है। परन्तु जान शिप्य होंगे और संभवतः उन श्रुतकीर्तिके नहीं पड़ता है इसके अन्तिम श्लोकोंमें गुणनन्दिका नाम जो पंचवस्तुके कर्ता हैं। ये श्रुतकीर्ति पंचवस्तके देखकर ही भ्रमवश इसके कर्ताका नाम गुणनन्दि कर्तासे पृथक् जान पड़ते हैं। क्योंकि इन्हें प्रक्रिसमझ लिया गया है । वे श्लोक नीचे दिये याके कर्ताने 'कविपति ' बतलाया है, व्याकरण जाते हैं:
नहीं । ये वे ही श्रुतकीर्ति. मालूम होते हैं जिनका सत्संधि दधते समासमभिवः स्यातायनामोन्नतं
समय प्रो० पाठकने शक संवत् १०४५ या वि० सं० नितिं बहुतद्धितं कृतमिहाख्यातं यशःशालिनम् । १९८० बतलायो है । श्रवणबेलगोलके जैनगुरुओंने सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णय
चारुकीर्ति पंडिताचार्य ' का पद शक संवत् नावत्याश्रयतां विविक्षुमनसा साक्षात्स्वयं प्रक्रिया ।। १॥ १०३९ के बाद धारण किया है और पहले 'चारदुरितमदेभनिशुंभकुम्भस्थलभेदनक्षमोमनखैः । कीर्ति इन्हीं श्रुतकीतिके पुत्र थे। श्रवणबेलगोलके गुणनन्दी भुवि चिर जीयात्।।
२ १०८ वे शिलालेखमें इनका जिकर है और इनकी सन्मार्गे सकलसुखप्रियकरे संज्ञापिते सदने
बहुत ही प्रशंसा की गई है। लिखा हैप्रा( दिवासस्सुचरित्रवानमलक: कांतो विवेकी प्रियः। तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । सोयं यः श्रुतकीर्तिदेवयतिपो भट्टारकोत्तसको
सिद्धशासनवर्द्धनप्रतिलब्धकीर्तिकलापकः ॥ २२ ॥ रंरम्यान्मम मानसे कविपतिः सद्राजहंसश्चिरम् ॥३
विश्रुतश्रुतकीर्तिभट्टारकयतिस्समजायत । इनमेंसे पहले पद्यका आशय पहले लिखा जा प्रस्फुरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिल हृत्तमाः॥२३॥ चुका है। उससे यह स्पष्ट होता है कि गुणनन्दिके प्रक्रियाके कर्ताने इन्हें भट्टारकोसंस और श्रुतशब्दार्णयके लिए यह प्रक्रिया नावके समान है। कीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेख में भी भट्टा. और दूसरे पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुणन- रकयति लिखा है। अतः ये दोनों एक मालूम होते न्दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहे । मालूम नहीं, हैं । आश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारइन पोसे इस प्रक्रियाका कर्तृत्व गुणनन्दिको कीर्ति पण्डिताचार्य ही इस प्रक्रियाके का हो। कैसे प्राप्त होता है । यदि इसके कर्ता स्वयं गुणन
समय-निर्णय । न्दी होते तो वे स्वयं ही अपने लिए यह कैसे कहते
ते . १)शाकटायन व्याकरण और उसकी अमोश
शाकायत व्याकरण कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहे । इनसे तो तिनामकी टीका दोनों ही के कर्ता शाकटायन नामसाफ प्रकट होता है कि गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे के आचार्य है, इस बातको प्रो. के. वी. पाठकने कोई पृथक ही व्यक्ति है जिसे वह श्रद्धास्पद सम- अनेक प्रमाण देकर सिद्ध किया है और उन्होंने झता है। अर्थात् यह निस्संदेह है कि इसके का यह भी बतलाया है कि अमोघवृत्ति राष्ट्रकूट राजा गुणनन्दिके अतिरिक्त कोई दूसरे ही हैं।
१देखो ‘सिस्टभ्स आफ संस्कृत प्रामर' पृष्ठ ६७॥ १ छपी हुई प्रतिके अन्तमें " इति प्रक्रियावतारे २ देखो, मेरा लिखा 'कर्नाटक जैन कवि' पृष्ठ २०। ३ देखो, कृद्विधिः षष्ठः समाप्तः। समाप्तेय प्रक्रिया । " इस तरह जैनसिद्धान्तभास्कर, किरण २.३, पृष्ठ १८। छपा है। इससे भी इसका नाम जैनेन्द्र प्रक्रिया नहीं ४ देखो, इंडियन एण्टिक्वेरी, जिल्द ४३, पृष्ठ २०५-१२ जान पड़ता।
में प्रो. पाठकका लेख:
Aho Shrutgyanam