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________________ अंक २ ] तक इसका कोई काव्य नहीं मिला है। कर्नाटक कविचरितके कर्ताने इनका समय वि० संवत् ९५७ निश्चय किया है । क्यों कि इनके शिष्य देवे के शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ९५९ में हुआ था और उसने ३९ वर्षकी अवस्थामै अपने सुप्रसिद्ध कनडी काव्य भारतचम्पू और आदिपुराण निर्माण किये हैं । हमारा अनुमान है कि येही गुणनन्दि शब्दार्णव कर्ता होंगे । श्रवण बेल्गोलके ४७ घे शिलालेख में इनके सम्बन्धर्मे नीचे लिखे लोक मिलते हैं: श्री जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवमन्दी पिच्छ मुनिपस्य बळाकपिच्छः शिष्योऽजनिष्ट रत्नत्रयवर्तिकीर्तिः । चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥ ६ ॥ तच्छिष्यो गुणनन्दि पण्डितयतिः चारित्रचक्रेश्वरः । तर्कव्यारणादिशास्त्रनिपुणः साहित्य विद्या रतिः ॥ ७ मिथ्यात्वादिमदान्वसिन्धुरघटासंघातकण्ठरियो । भन्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्पदर्पापहः ॥ ८ तच्छिष्यत्रिशतं विवेकनिषयः शास्त्रान्थिपारंगताः तेषू कृष्टसमा द्विसप्ततिमिताः सिद्धान्तशास्त्रार्थकाः ॥ ९ व्याख्याने पटवो विचित्रचरिताः तेषु प्रसिद्धो मुनिः । नानाननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्र सैद्धान्तिकः || १० चन्द्रप्रभचरित महाकाव्य के कर्त्ता वीरनन्दिका समय शक संवत ९०० के लगभग निश्चित होता है । क्योंकि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथ काव्यमें उनका स्मरण किया है । और वीरनम्दीकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है -१ श्रीगुणनन्दि, २ विबुधगुणनदि, ३ अभयनन्दि और वीरनन्दि । यदि पहले गुणमन्दि और वीरनन्दिके बीचमें हम ७८ वर्षका अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५७ के लगभग आ जायगा । इससे यह निश्चय होता है कि वीरनन्दिकी गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदिपंप गुरु देवेद्र गुरु गुणनन्द एक ही होंगे और जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं येही शब्दार्णव के कर्त्ता होंगे । गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ [ वि० सं० ११७२ ] में हुए हैं जो मेघचन्द्र ७५ त्रैषिद्य के गुरु थे । संभव है कि शब्दार्णवके क ये ही हों । शब्दार्णवकी इस समय दो टीकायें उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातन जैन ग्रन्थमालामें छप चुकी हैं--१ शब्दार्णवचन्द्रिका, और २ शब्दार्णवप्रक्रिया । 1 " १ - शब्दार्णवचन्द्रिका | इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर र सर्व इन्स्टिट्यूटमें मौजूद है। यह ताडपत्रपर नागरी लिपि है। इसके आदि - अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं । इसमें छपी हुई प्रतिमें जो गद्य प्रशस्ति है, वह नहीं है। और अन्तमें एक श्लोक है जो भाधा पढ़ा जाता है- " मंगलमस्तु । इन्द्रश्चंद्रशकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यत्प्रोवाचापिशलिरमरः काशकास्त्र शब्दपारायणस्येति । इसके कर्त्ता श्री सोमदेव मुनि हैं। ये शिलाहार शके राजा भोजदेव [ द्वितीय ] के समयमें हुए हैं और अर्जुरिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिर मे - जो कि महामण्डलेश्वर गंडरादित्यदेवका बनवाया हुआ था - उन्होंने इसे शक संवत् ११२७ [वि० सं० १२६२ ] में बनाया है | यह ग्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है. और कोल्हापुर राज्यमें है । वादीभवनांकुश श्रीविशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयावृत्यले हल ग्रन्थको रचना हुई है: "श्री सोमदेवयतिनिर्मितिमादधाति या नौः प्रतीतगुणनंदितशब्दवाच । १ ० २५ सन १८८०-८८ की रिपोर्ट | २ ये विशालकीर्ति वे ही मालूम होते हैं जिनका उल्लेख १० आशाघरने अपने अनगारधर्म मृतकी प्रशस्तिकी टीकाने 'यादीन्द्र विशालकीर्ति ' के नामसे किया है और जिनको उन्होंने न्यायशास्त्र में पारंगत किया था। पं० आशापर वि० सं० १२४९ के लगभग धारामै आये थे और वि० सं० १३०० तक उनके अस्तित्वका पता लगता है। (देखो मनिर्मित विद्वद्वत्नमाला में ' पण्डित प्रवर आशाधर शीर्ष फलख ) अतः सोमदेवका वैयावृत्य करनेवाले विशालकीर्ति दूसरे नहीं हो सकते | पं० आशाधर के पाससे पढकर दी वे दक्षिणके और चले आये होंगे। 1 Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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