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जैन साहित्य संशोधक
' [ भाग १
शेषको अनावश्यक बतलाया है-“ स्वाभाविक होगा; कुछ भी हो, पर यह पूरा सूत्र 'दृश्यतेऽन्यः स्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः ।” ( १-१.९९) तोपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्रपाठके
और इसी लिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण अ०४ पा०७ का ७५ वाँ सूत्र है । परन्तु शब्दार्ण'अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका टीकाके ववाले पाठमें न तो यह सूत्र ही है और न इसके कर्ता स्वयं ही" आदावपज्ञापक्रमम" (१-४.११४) प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई और ही सूत्र है। सूत्रकी टीकामे उदाहरण देते हैं कि “ देवो. अतः यह सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपापज्ञमनेकशेषव्याकरणम्" यह उदाहरण अभयन- ढ वही है जिसमें उक्त सत्र मौजूद है। न्दिकृत महावृत्तिमे भी दिया गया है। इससे सिद्ध , ४-भद्राकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिक में 'आद्ये है कि शब्दार्णवचन्द्रिकाके कर्ता भी उस व्याक- परोक्ष (अ०१ सू० ११)' की व्याख्या “सादि रणको देवोपज्ञ या देवनन्दिकृत मा
सर्वनाम ।" (१--१--३५ ) सूत्रका उल्लेख किया नेकशेष है, अर्थात् जिसमें ‘एकशेष' प्रकरण है, इसी तरह पण्डित आशाधरने अनगारधर्मामृनहीं है । और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका तटीका ( अ०७ श्लो. २४ ) में "स्तोके प्रतिना" अभयनान्दिने की है।
(१-३.३७) और “भार्थे” (१-४-१४) इन आचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक दो सूत्रोको उद्धत किया है और ये तीनों ही सूत्र (पृष्ठ २६५) में ' नैगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी जैनेन्द्र के अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही मिलव्याख्या करते हुए लिखते हैं-"नयश्च नयौ च न- ते हैं । शब्दार्णववाले पाढमें इनका अस्तियाश्च नया इत्येकशेषस्य स्वाभाविकस्याभिधाने दर्श- त्व ही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशा
पा वचनोपलम्भाधनविरुद्धयते।" घर इसी अभयनन्दिवाले पाठकोही माननेवाले थे। इसमें स्वाभाविकताके कारण एकशेष की अना- अकलंकदेव वि० की नौवीं शताब्दिके और आशावश्यकता प्रतिपादित है और यह अनावश्यकता धर १३ वीं शताब्दिके विद्वान् हैं। जैनेन्द्र के वास्तविक सूत्रपाठमें ही उपलब्ध होती ५-पं० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णवचन्द्रिकाकी है । " स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः” भूमिकामें लिखा है कि आचार्य पूज्यपादने स्वनि(१-१-९९) यह सूत्र शब्दार्णववाले पाठमें नहीं है, मित 'सर्वार्थसिद्धि' में 'प्रमाणनयैरधिगमः' अतः विद्यानन्द भी इसी सूत्रवाले जैनेन्द्रपाठको (अ.१ सू०६) की टीकामै यह वाक्य दिया हैमाननेवाले थे । पाठकोंको यह स्मरण रखना “नयशब्दस्याल्पाचतरत्वात्पूर्वनिपातः प्राप्नोति नैषचाहिए कि उपलब्ध व्याकरणोमे अनेकशेष व्याक- दोषः । अभ्यर्हितत्वात्प्रमागस्य तत्पूर्वनिपातः। " रण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं। और अभयनन्दिवाले पाठमे इस विषयका प्रतिपा_३–'सर्वार्थसिद्धि ' तत्त्वार्थ सूत्रकी सुप्रसिद्ध दन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है । केवल अभयटीका है । इसके कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि नन्दिका 'अभ्यहितं पूर्व निपतति' वार्तिक है । हैं जिनका कि बनाया हुआ प्रस्तुत जैनेन्द्र व्याकर- यदि अभयनन्दिवाला सूत्रपाठ ठीक होता तो ण है। इस टीकामें अध्याय५ सुत्र २४ की व्याख्या उसमें इस विषयका प्रतिपादक सूत्र अवर करते हुए वे लिखते हैं -- “ 'अन्यतोऽपि' इति तसि जो कि नहीं है। पर शब्दार्णववाले पाठमें "अच्य" कृते सर्वतः । " इसी सूत्रकी व्याख्या करते हुए (१-३--११५) ऐसा सूत्र है जो इसी विषयको राजवार्तिककार लिखते है--- दृश्यतेऽन्यतो- प्रतिपादित करता है। इसलिए यही सूत्रपाट देवपीति' तासि कृते सर्वेषु भवेषु सर्वत इति भवति ।" नान्दकृत है । बस, पं० श्रीलालजीकी सबसे जान पडता है या तो सर्वार्थसिद्धिकारने इस बडी दलील यही है जिससे वे शब्दार्णववाले सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा, या लेखकों तथा पाठको असली सिद्ध करना चाहते हैं। इसके छपानेवालौने प्रारंभका ‘दृश्यते' शब्द छोड दिया सिवाय वे और कोई उल्लेख योग्य प्रमाण अपने
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