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जैन साहित्य संशोधक
[भाग.
महत्ताके कारण वे जिनेन्द्रबद्धि कहलाये और अनेक लेखकोंने उन्हें केवल देवनान्द नामसे देवोंने उनके चरणों की पूजा की इस कराण उनका और केवल पूज्यपाद नामसे स्मरण किया है और नाम पूज्यपाद हुआ।
दोनों नामोसे उन्हें वैयाकरण माना है। आवार्य श्रवणबेल्गोल के नं० १०८ के मंगराज कविकृत शुभचन्द्र पाण्डवपुराण में लिखते हैंशिलालेखमें जो शकसंवत् १३६५ [वि० सं० पूज्यपादः सदापूज्यपादः पूज्यैः पुनातु माम् । १५००] का लिखा हुआ है, नीचे लिखे श्लोक उप- व्याकरणार्णवो येन ता! विस्तीर्णसद्गुणः ।। लब्ध होते हैं:
महाकवि धनंजय अपनी नाममालामें पूज्यश्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्य
पादको लक्षणग्रन्थ (व्याकरण) का कर्ता स्ततः सुराधीथर पूज्यपादः।
मानते हैं:--- यदीयवैदुष्यगुणानिदानी
प्रमाणमकलंकस्य पूज्पादस्य लक्षणम् । वदन्ति शास्त्राणि तदुध्दतानि ॥ १५ ॥
धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥२०॥ घृतविश्वबुद्धिरयमत्रयोगिभिः
श्रवणबेलगोल के ४७ नंबरके शिलालेखमें कृतकृत्यभावमनुबिनदुच्चकैः ।
श्रीमेघचन्द्र विद्यदेवकी स्तुतिमें नीचे लिखा हुजिनवद्वभूव यदनगचापहृत्स
आ श्लोक दिया है:---- जिनेन्द्रबुद्धिरित साधुवर्णितः ।। १६ ।।
सिद्धान्ते जिनवीरसेन सदशः शास्त्रााजनीभास्करः, श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधाई.
षट्तकेंश्वकलंकदेवविबुधः साक्षादयं भूतले। र्जीयाद्विदेहजिनदर्शनप्तगात्रः ।
सवव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं, यत्पादधीतजलसंस्पर्शनप्रभावात्
त्रैविद्योत्तममेघचन्द्रमुनिपो वादीमपञ्चानमः ॥ कालायसं किल तदा कन कीचकार ॥१७॥
इसमें मेघचन्द्रको पूज्यपादके समान व्याकरणइन श्लोकोसे भी उनके पूज्यपाद और जिनेंद्र.
जिन्द्र का ज्ञाता बतलाया है । इससे पूज्यपादका वैया. बुद्धि नाम प्रकट होते हैं।
__करण होना सिद्ध है। ये मेघचन्द्र आचारसारके नन्दिसंघकी पट्टावलीके नीचे लिखे हुए श्लोक- कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तिके गुरु थे और से भी देवनन्दिका दूसरा नाम पूज्यपाद था, यह इनका स्वर्गवास शक संवत् १०३७ ( वि० सं० स्पष्ट होता है।
११७२ ) में हुआ था। यशःकीर्तिर्यशोनन्दी देवनन्दी महामतिः।
___ अनगारधर्मामृतटीकाकी प्रशन्तिम--जो वि. श्रीपूज्यपादापराख्यो गुणनन्दी गुणाकरः ॥
सं० १३०० में लिखी गई है-पण्डित आशाधरइनका संक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जीने लिखा है कि मैंने जैन न्याय और जैनेन्द्र व्याजिनसेन, वादिराजसूरि, और पुन्नाटसंघीय जिन- करण शास्त्र पण्डित महावीरसे धारा नगरी में सेनने इन्हें इसी संक्षिप्त नामसे स्मरण किया है- पढे-“धारायामपठन्जिनप्रामति-वाक्शास्त्रे महा
कवीनां तीर्थरुदेवः किंतरां तत्र वर्ण्यते । वीरतः । ” और जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे' की टीका विदुषां वाङ्मलध्यसि तार्थ यस्य वचोमयम् ॥ ५२॥ में लिखा है-" जैनेन्द्र प्रमाणशास्त्रं जैनेन्द्रव्याक
-आदिपुराण प्रथम पर्व । रणं च।" इससे यह निश्चय होता है कि आशाअचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवंद्यो हितैषिणा। धरके समयमें जैनेन्द्र व्याकरणका पठन-पाठन ३.ब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलंभिताः ॥ १८ होता था । सागार और अनगार धर्मामृतटीकामे
--पार्श्वनाथचरित प्रथम सर्ग। कई जगह प्रमाणरूपमें व्याकरणके सूत्र दिये हैं इन्द्र-चन्द्रार्फजैनेन्द्रव्यापि(डि)व्याकरणक्षिणः । और वे इसी देवनन्दिकृत जैनेन्द्रव्याकरणदेवस्य देववन्द्यस्य न वंदते गिरः कथम् ॥३. के हैं।
-हरिवंशपुराण। कर्नाटक देशमें वृत्तविलास नामके एक जैन
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