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जैन साहित्य संशोधक
[ भाग १
प्रकारके उल्लख मिलते हैं । कल्पसूत्रकी विनयविजय 'ऐन्द्र' नामसे प्रकट किया । अर्थात् इन्द्रके लिये कृत सुबोधिकाटीकामें लिखा है:-
जो व्याकरण कहा गया, उसका नाम 'ऐन्द्र'हुआ। __" [ शक्रः ] यत्र भगवान् तिष्ठति तत्र पण्डितगेहे समा- प्राचीन कालमें इन्द्रनामक आचार्यका बनाया
।। अगत्य च पण्डितयोग्य आसने भगवन्तं उपवेश्य हुआ एक संस्कृत व्याकरण था । इसका उल्लेख पण्डितमनोगतान् सन्देह न पप्रच्छ, श्रीवीरोऽपि बालोऽयं अनेक ग्रन्थोमें मिलता है। ऊपर दियहुए बोपदेव किं वक्ष्यतीत्युत्कर्णेषु सकललोधु सर्वाणि उत्तराणि ददो, के श्लोकमें भी उसका नाम दर्ज है । हरिवंश पुराणके ततो जैनेन्द्रव्याकरण' जज्ञे ! यतः
कर्तीने देवनन्दिको ‘इन्द्रचंद्रार्कजैनेंद्रव्यापिण्यासक्को य तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता । करणेक्षिणः' विशेषण दिया है। शब्दार्णवचंद्रिकाकी सद्दस्स लवखणं पुछे वागणं अवयवा इदं ॥” ताडपत्रवाली प्रतिमें, जो १३ वीं शताब्दिके लगभअर्थात् भगवानको मातापिताने पाठशालामें गकी लिखी हुई मालूम होती है, “इन्द्रश्चन्द्रः गुरुके पास पढने के लिए भेजा है, यह जानकर शकटतनयः " आदि श्लोकमें इन्द्र के व्याकरणका इन्द्र स्वर्गसे आया और पण्डितके घर, जहां भग- उल्लेख है। बहुत समय हुआ यह नष्ट होगया है। वान थे वही, गया । उसने भगवानको पण्डितके जब यह उपलब्ध ही नहीं है तब आसनपर बिठा दिया और पण्डितके मनमें जो इसके विषयमें कुछ कहनेकी आवश्यकता जो सन्देह थे, उन सबको पूछा । जब सब लोक यह प्रतीत नहीं होती । यद्यपि आजकलके समयमें इस सुननेके लिए उत्कर्ण हो रहे थे कि देखें यह बालक बातपर कोई भी विद्वान विश्वास नहीं कर सकता क्या उत्तर देता है; भगवान वीरने सब प्रश्नोंके है कि भगवान महावीरने भी कोई ध्याकरण बनाया उत्तर दे दिये, तब 'जैनेंद्र व्याकरण बना। होगा और वह भी मागधी या प्राकृतका नहीं, किन्तु
परंतु इस प्रसंगक वे सब उल्लेख अपेक्षाकृत ब्राह्मणों की खास भाषा संस्कृतका-तो भी यह निस्स अर्वाचीन ही हैं जिनमें भगवानके उत्तररूप इस न्देह है कि वह व्याकरण ' जैनेन्द्र ' तो नहीं था। व्याकरणका नाम जैनेन्द्र' बतलाया है। प्राचीन यदि बनाया भी होगा तो वह 'ऐन्द्र ही होगा। उल्लेखोंमें इसका नाम जैनेन्द्रकी जगह 'ऐन्द्र' क्यों कि हरिभद्रसार और हेमचंद्रसूरि उसीका प्रकट किया गया है। जैसा कि आवश्यकसूत्रकी उल्लेख करते हैं जैनेन्द्रका नहीं। जान पड़ता है, हारिभद्रीयवृत्तिके पृष्ट १८२ में- . . विनयविजय और लक्ष्मीवल्लभने पीछेसे 'ऐन्द्र'
" शकश्च तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थकरं को ही जैनेन्द्र' बना डाला है। उनके समयमें भी आसने निवेश्य शब्दम्य लक्षणं पृच्छति । भगवतः च 'ऐन्द्र' अप्राप्य था, इसलिए उन्होंने प्राय 'जनेंद्र' व्याकरणं अभ्यधायि । व्याक्रियन्ते लौकिक सामयिकाः को ही भगवान महावीरकी कृति बतलाना विशेष
या अनेन इति व्याकरणं शब्दशास्त्रम् । तदवयवा: केचन सुखकर और लाभप्रद सोचा होगा। उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरणं संजातम् ।"
___ यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हरिभद्रसूरि इसी प्रकार सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र अपने
विक्रमकी आठवीं शताब्दिके और हेमचन्द्रसूरि योगशास्त्रके प्रथम प्रकाशमें लिखते हैं:
तेरवीं शताब्दिके विद्वान हैं जिन्होंने 'ऐन्द्र' को " मातापितृभ्यामन्येयुः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे ।।
भगवानका व्याकरण बतलाया है; परंतु 'जैनेन्द्र' आः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थित ॥५६॥ उपाध्यायासने तस्मिन्वासवेनोपवेशितः।।
डॉ. ए. सी. बर्नेलने इन्द्रव्याकरणके विषयमें चीनी प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शनदपारायण जगौ ।। ५. तितीय और भारतीय साहित्यमें जो जो उल्लेख मिलने इदं भगवतन्द्राय प्रोन शब्दानुशासनम् ।
हैं उनको संग्रह कर के 'ओन दि ऐन्द्रस्कल ऑफ संस्कत उपाध्यायेन तच्छृत्वा लोप्चन्द्रमि-रितम् ॥ ५८ ॥ ग्रामेरियन्स' नामकी एफ बडी पुस्तक लिखी है। इसके अनुसार भगवानने इन्द्र के लिये जो २ " तेन प्रणटमैन्द्रं तदस्मव्याकरणं मुधि" शब्दानुशासन कहा,उपाध्यायने असे सुनकर लोकमें
---कथासरित्सागर, तरंग ४।
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