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ज्ञानप्रदीपिका। स्थिरोदये स्थिरच्छत्रे स्थिरलग्यो भवेद्यदि ।
न मृतिन च नष्टं च न रोगशमनं तथा ॥१८॥ स्थिर लग्न हो और स्थिर छत्र हो और स्थिर उदय हो तो फल 'नहीं' कहना चाहिये । अर्थात् 'मृत्यु नहीं हुई ' 'नष्ट नहीं हुआ' रेगशान्ति नहीं हुई न्यादि इत्यादि कहना समुचित है।
द्विदेहबोधया (2) रूढे छत्रे नाटं न सिध्यति ।
न व्याधिशमनं शत्रुः सिद्धिविद्यान व स्थिरा ॥१६॥ द्विस्वभाव लग्न, द्विस्वभाव छत्र और द्विस्वभाव आरूढ़ हो तो नष्ट सिद्धि नहीं हुई ' व्याधि शमन नहीं हुआ' आदि निषेधात्मक उत्तर देना।
चरराश्युदयारूदछत्रेषु स्यादिति स्थिता । नष्टसिद्धिर्न भवति व्याधिशांतिर्न विद्यते ॥२०॥ सर्वागमनकार्याणि भवन्त्येव न संशयः ।
ग्रहस्थितिबलेनैव एवं ब्रया शुभाशुभम् ॥२१॥ पर राशि ही लग्न, छत्र और आरूढ़ हो तो भी नहीं, अर्थात् नष्ट सिद्धि न हुई, रोगशान्ति नहीं हुई, आदि बताना। आगमन सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में 'हाँ' कहना चाहिये । इस प्रकार शुभाशुभ फल ग्रहों पर से कहना चाहिये।
चरोभयस्थिताः सौम्याः सर्वकामार्थसाधकाः । आरूढ़छत्रलग्नेषु करेण्वस्तं तेषु च ॥२२॥
परेणापहृतं ब्रूयात तत् सिध्यति शुभेषु च ॥२३॥ चर और द्विस्वभाव राशियों पर यदि शुभ ग्रह हों तो कार्य सिद्ध होता है। आरूढ़ छर और लग्न में यदि अस्त होकर क्रूर ग्रह पड़े हों तो दूसरे ने चुराया है' ऐसा फल कहना। पर, यदि शुभग्रह हों तो मिल जायगा, ऐसा कहना !
पंचमो नवमरतेन नष्टलाभः शुभोदये।
येषु पापेन नष्टाप्ती रूढ्यादित्रिकेषु च ॥२४॥ पंचम, नवम और सप्तम (१) शुभ ले युक्त हो तो नष्ट वस्तु मिलेगी, अशुभ ग्रह से युक्त हों तो न मिलेगी। यहो हाल लग्न, चतुर्थ और दशम का भी जानना ।
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