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________________ खैर, श्वेताम्बर हो या दिगम्बर जैन साहित्य हो, इसे जैनीमात्र को अपनाना चाहये । परन्तु यहाँ पर यह प्रश्न उठ सकता है कि मुद्रित वे ग्रन्थ अगर जैन हैं तो मंगलाचरण का परिवर्तन कैसे ? मंगलाचरण एवं अन्तरंग कलेवर को कुछ उलट-पुलट कर जैनेतर विद्वानों के द्वारा प्रकाशित त्रिविक्रमदेवकृत प्राकृतव्याकरणादि कुछ जैनग्रन्थ हमलोगों के सामने उपस्थित हैं, अतः संभव है कि उन्हों की तरह इसमें भी कुछ उलट पलट कर दी गयी हो । राय बहादुर होरालाल एम० ए० ने भी स्वसम्पादित “Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in the central province and Berar" नामक विस्तृत प्रन्यसूची में इस ज्ञानप्रदीपिका को जैन ग्रन्थों में ही शामिल किया है। अब इस सम्बन्ध में प्रस्तुत ग्रन्थों के अन्दर भी स्थूलदृष्टि से एकबार नजर दौड़ाना आवश्यक प्रतीत होता है। "निर्दिष्टं लक्षणं चैव सामुद्रवचनं यथा"। (सा० शा० पृ० १ श्लोक ३ ) "शतवर्षाणि निर्दिष्टं नारदस्य बचो यथा"। ( , , , ४, २१) "पुरुषत्नितयं हत्वा चतुर्थे जायते सुखम्"। ( , , , १८ ,, २७) इसी प्रकार-"आदित्यारौ पुनर्भूः स्यात्पने वैवाहिके वधूः"। (ज्ञा० प्र० पृ० ४६ श्लोक १५ श्रादि ) मैं समझता हूँ कि उक्त श्लोकान्तर्गत कुछ सिद्धान्तों से कतिपय जैन विद्वान प्रस्तुत ग्रन्थों को जैनाचार्यों के द्वारा प्रणीत मानने का प्रायः तैयार नहीं होंगे। किन्तु इसीके उत्तर में अन्यान्य कई जैन विद्वानों का ही कहना है कि ज्योतिष, वैद्यक, मन्व, नीति आदि विषय लौकिक एवं सार्वजनिक हैं । अतः तद्विषयक वे ग्रन्थसर्वथा जैन दर्शन के अनूकूल ही नहीं हो सकते अर्थात् कुछ बातें प्रतिकूल भी हो सकती हैं। इस बातको पुष्ट करने के लिये वे विद्वान् भद्रबाहुसंहिता अर्हन्नीति आदि ग्रन्थों को उपस्थित करते हैं। उन्हीं विद्वानों का यह भी कहना है कि एतद्विषयक इन लौकिक ग्रन्थों में भिन्न भिन्न ग्रहों के योग से सुरापानवती, वेश्या, भ्रष्टा, व्यभिचारिणी, परपुरुषगामिनी आदि होती हैं, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि सार्वजनिक लौकिक प्रन्थों में ये सब बातें उपलब्ध होना स्वाभाविक है। खैर, मतविभिन्नता सदा से चली आ रही है और चलती ही रहेगी। इस विषय में मुझे नहीं पड़ना है। ___ अब अन्वेषक विद्वानों से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरे द्वारा उपस्थित को हुई प्रस्तुत ये सामग्रियाँ उक्त ग्रन्थ जैनाचार्ग-प्रणोत निर्धान्त सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं, अतः वे इस सम्बन्ध में विशेष खोज करके सबल प्रमाणों को विद्वानों के सामने उपस्थित कर इस विषय को हल कर दें। Aho ! Shrutgyanam
SR No.009876
Book TitleGyan Pradipika tatha Samudrik Shastram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamvyas Pandey
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1934
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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