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भाखत्याम् ।
याम्य फलं तदा योगः यदा सौम्य फलं तदान्तरितो नतिः स्यात्, पूर्वानित्तस्थिरलम्वनं दिग्गुणितं गुणाप्तं प्राक् परयोः सौम्ययाम्ययोः खरांशोः हीनं धनं सौम्यनते हीनं याम्यते धनं कार्यम् । ततस्तमः संप्रयुतात् पर्वकालसंस्कारितद्विघ्नभास्कराच्छरः साध्यः ( स च शून्येन
भ्यां च सौम्यः, एकेन त्रिभियम्यः) शरावनत्यान्तरयुक् शरावनत्योरेकदिशो योगः भिन्नदिशोरन्तरकृते स्फुट: स्यात् । भोग्ययुताङ्गनन्दारवेर्मानं तद्राहकोषः स्थितएवचन्द्रः ॥ २ ॥३॥
भा० टी०-शर को दो जगह धरके एक जगह के अंक में १०० का भाग देने से जो फल मिळे उसमें ११ युक्त करके उसका दूसरे जगह घरे हुए अंक में भाग देने से जो फल मिले उसको "तदक्ष" में हीन युत करने से नति होती है। स्थिर लंवन को १९ से गुणिके उसमें ३ का भाग देने से जो फल मिलै उसको सौम्यनत होय तो पर्वकाल संस्कारित द्विघ्न रवि में हीन याम्यनत होय तो युक्त करै, फिर उसमें उस दिन के राहु के स्पष्ट करके युत करने से सूर्ययुक्त राहु होता है। सूर्ययुक्त राहु से स्पष्ट शर पूर्व को कही हुई रीति से बनावै । सूर्य के खण्डातर को ९६ में युक्त करने से सूर्य का मान होता है, आगे कहे हुए प्रकार से चन्द्रमान आदि बनाकर ग्रास स्पष्ट करै ( मान योग के आधे में शर न घटै तो जाने ग्रहण न लगेगा ) ॥ २ ॥ ३ ॥
उदाहरण -- शर १०२५ ४३ | ४१ को दो जगह रक्खे एक
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