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॥ श्रीअर्जुनपताका ॥
छ ? ते दर्शावाय छे-लहुसंखिजं दुच्चिय [अर्थात् २ ओज लघुसंख्यात छे ], ओ प्रमाणे सिद्धान्तमां कहेलं छे. अमां पण अक [ १ नी संख्या तो वस्तुसूप पणाना अभिप्रायथी संख्या रुप छे, अने अमां तो आ पहेलु अने आ बीजं ओ रीते पहेला बीज पणानी गणत्रीथी घोषपर्नु [संख्यान स्पष्ट बोलवा पणुं] पण छे. आ माटे सदृश पणुं छे अ प्रमाणे नव अने दशमां पण संख्यातपणाना साधर्म्यथी सराखापणुं छे, [ अर्थात् ९ जेम संख्यात कहेवाय छे, तेम १० पण संख्यातज छे माटे सरखा छे. ] वळी विषम सम भावमां पण १ ने अने २ ने संबंध छे, जेम प्रथम दिवस अने त्यारबाद (बीजी) रात्री, अ प्रमाणे ओ बेनो (१-२ नो अथवा पहेला बीजानो) संबंध (विषमभाव संबंध ) छे, अने अथीज केवळ बे परमाणुनो स्कंध ते द्वयणुक, वळी ओ रीते तार्किक मतमां अणु [ओक भावी अणु ] मान्यो नथी, कारण के तेना मते [ अक अणु पण छ अणुना मानवाळो होवाथी. वळी जो के सिद्धान्तोमां व्रण अणु बडे त्र्यणुक कह्यो छे, तोपण द्विक त्रिकमां साधेक अनर्धकनो (द्वयणुकादि स्कंधो अर्ध युक्त होवाथी सार्धक अने केवळ अणु वा प्रदेश ते निर्विभाज्य होवाथी अनर्धक ओ रीते भाज्याभाज्यो) विरोध नहीं गणी गणीनेज कह्यो छे. वळी जोके अक अने अनर्ध निर्विभाज्य ] होय तेज अणु कहे वाय, तो पण ते त्रिकनी साथे सदृशता वालो नथी, कारणके द्विकना व्यवधानवालो आंतरावालो छे. अने अकमां अनर्धकता होवा छतां पण अव्यवधान होवाथी सदृश पणुं छे. अक वस्तु सत् छे तोपण असत् सरखी छे, परन्तु बे वस्तुना सहभावे आस्तिक्य-सत् पणुं सार्थक छे. कारण संयोगादेव सिद्धिः [ संयोगधीज सिद्धि ] कही छे, अने संयोग बे वस्तुना सद्भावेज होय छे. अने ते कारणथीज सम्यग्ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः[सम्यग्ज्ञान अने क्रिया ओ बेथीज मोक्ष कह्यो छे.] अबुं वचन छे.
वळी शब्दिकमतमां [वैयाकरणमां ] पण सर्वादि पाठ पण ओक द्वि शब्द ने विषे छे, परंतु त्रण शब्दने नथी, अने अथीज अक सन्मुख द्विक [१ नी तुल्य २] कहेवाय छे. वळी शाब्दिको (वैयाकरणीओ) प्रथमा अने द्वितीया विभक्ति बेने' पण सदृश कहे छे, मुनेः इत्यादि १ फलं फले फलानि [प्रथमा ), फलं फले फलानि, द्वितीया, बहुवचने करिणः करिणः इत्यादिवत्.
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