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________________ आयारो तह आयार-चूला भगवान् पार्श्व के साढे तीन सौ चतुर्दश-पूर्वी मुनि थे । ' भगवान महावीर के तीन सौ चतुर्दश- पूर्वी मुनि थे । " समवायाग और अनुयोगद्वार में अन-प्रविष्ट और अङ्ग - वाह्य का विभाग नही है । सर्व प्रथम यह विभाग नन्दी में मिलता है । अङ्ग बाह्य की रचना अर्वाचीन स्थविरो ने की है। नन्दी की रचना से पूर्व अनेक अङ्ग वाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे . चतुर्दश-पूर्वी या दश-पूर्वी स्थविरो द्वारा रचे गए थे । इसलिए उन्हे आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप ( के विभाग लिया और (२) अङ्ग वा । यह विभाग के (१) अङ्ग-प्रविष्ट 7) तक नही हुआ था । यह सबसे पहले नन्दी (वीर, नन्दी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जात - (१) प्रविष्ट और (३) अङ्ग - वाह्य । आज 'अङ्ग-प्रविष्ट' और 'अङ्ग बाह्य' उपलब्ध होते है, किन्तु पूर्व उपलब्ध नहीं है । उनकी अनुपलब्धि ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय है । १. समवायाग, प्रकीर्णक समवाय, सू० १४ । २. वही, सू० १२ । ३. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ : प्रथमं पूर्वं तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वात् । " २-पूर्व जैन- परम्परा के अनुसार श्रुत ज्ञान (शाब्द-ज्ञान) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सव एकमत नही हैं । प्राचीन आचायों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया | 3 for faarat का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान् पार्श्व की परम्परा की श्रुतराशि है । यह भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, अन्तर नही आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशागी पूर्वो को उत्तरकालीन रचना है । इसे 'पूर्व' कहा गया है । " किन्तु इस फलित में कोई वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए है । बारहवाँ अङ्ग 8. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : अन्ये तु व्याचक्षते पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थ मर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्र विरचयन्ति, पश्चादाचारादिकम् ।
SR No.009871
Book TitleAayaro Taha Aayar Chula
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1967
Total Pages113
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size3 MB
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