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अन्मति-तीर्थ संवेदनशीलता, मैत्री भाव, समदर्शिता थी, वे ऐसी एकान्त मिथ्याबात कह ही नहीं सकते । जिनका पुरुषार्थ पर इतना विश्वास वे हमपर अविश्वास कैसे दिखा सकते हैं ? यह तो किसी स्त्रीद्वेषी व्यक्ति का काम है, जिसने यह अध्ययन इसमें जोडा है ! घट घट के अन्तर्यामी ये बात आपही अच्छी तरह से जान सकते हो या देख सकते हो । हम तो छद्मस्थ है, परंतु आपपर और आपने बताये मार्गपर हमें पूरा विश्वास है।
सम्मति-तीर्थ (११) सूत्रकृतांग का दार्शनिक विश्लेषण : श्रीमद् राजचन्द्र के अनुसार
- सौ. हंसा नहार
द्वितीय अंग आगम, सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन 'समय' में स्वसमय याने जैन सिद्धान्त तथा परसमय याने अन्य धर्मों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है ।
उन दर्शनों का निरूपण करनेवाले कुछ तत्त्वशास्त्रज्ञों के नाम - १) षड्दर्शनसमुच्चय - आ. हरिभद्रसूरिजी, ८ वी शताब्दी २) अन्ययोग-व्यवच्छेद-द्वात्रिंशिका - आ. हेमचन्द्रसूरिजी १२ वी शताब्दी
स्याद्वाद मंजरी-टीका - आ. मल्लिषेणसूरिजी, १२ वी शताब्दी (जो आगे चलकर जैन दर्शन का एक सुंदर ग्रन्थ और स्वतन्त्र मौलिक रचना के रूपमें
प्रसिद्ध हुआ ।) ४) सम्यक्त्व षट्स्थान चउपइ - उपाध्याय श्री यशोविजयजी, १८ वी शताब्दी ५) आत्मसिद्धिशास्त्र (गाथा ४३ से १०० तक) - श्रीमद् राजचन्द्र २० वी
शताब्दी सूत्रकृतांग के समान श्रीमद्जी ने भी किसी वादों का नामनिर्देश किये बिना गुरु-शिष्य के शंका-समाधान रूपसे तर्कयुक्त द्वारा सत्य सिद्धान्त का निरूपण किया है। (१)पंचमहाभूतवाद (बृहस्पतिमतानुयायी चार्वाक, जडवादी दर्शन,
लोकायतिक) : पृथ्वी, अप्, तेज, वायु तथा आकाश इन पाँच महाभूतों के संयोग से जीवात्मा की उत्पत्ति और विनाश से जीव का
नाश ।