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सम्मति-तीर्थ (९) नरक : एक वास्तव अथवा संकल्पना ?
- संगीता मुनोत जितना गहन तिमिर मावस में होगा, उतनी सुबह उजाली होगी, जितनी सन्देह में विरानी, उतनी विश्वास में हरियाली होगी। स्वर्ग-नरक है सत्य, नहीं इसमें सन्देह कहीं, प्रभुवाणी तो त्रिकाल में, सत्य सत्य सत्यही होगी ।
विश्व के सभी धर्म जिस विषयपर एकमत हैं, वह है नरक की सत्यता । नरक विषय संकल्पनात्मक नहीं है । जैनधर्म ने भौगोलिक आधारों पर बतायी हुई यह एक वास्तविकता है । यह सत्य है कि विज्ञान आजतक नरक को खोज नहीं पाया है । मात्र इसके आधार पर हम नरक के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकतें । विज्ञान की अपनी मर्यादाएँ सिद्ध है । जैसे मूलतत्त्वों की संख्या धीरे-धीरे बढती हुई विज्ञान की दृष्टि से १११ हो गयी है । जैन आगमानुसार मूलतत्त्वों की संख्या पहले ही १६८ बतायी जा चुकी है । वैसे ही शायद नरक की भी खोज की जायेगी।
सूत्रकृतांग में पाचवें 'नरकविभक्ति' नामक अध्ययन में, नरक का वर्णन दिखायी देता है । टीकाकारों ने इसी के आधार से नरक शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी है - १) नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माणा इति नरकाः । २) न रमन्ते तस्मिन् इति नरकाः ।
अर्थात् पापकर्म करनेवाले प्राणी जहाँ पर वेदना, पीडा और दुःखों को भोगता है, सुख नहीं पाता, वह स्थान नरक है।
आम्मति-तीर्थ स्थानांगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और सूत्रकृतांग के इस अध्ययन में सारांशरूपेण नरकगमन के मुख्य चार कारण या हेतु बतलाए हैं । नारकी जीव तीन प्रकार से यातनाएँ भोगता है । इसका विस्तृत वर्णन जैन मूलग्रन्थों में विस्तार से पाया जाता है।
सूत्रकृतांग में नरक का वर्णन क्रमशः प्राप्त नहीं होता परन्तु बाकी जगह सात नरक की भूमियाँ, उनके स्थान, नाम, रचना, लम्बाई-चौडाई, गति-स्थिति आदि का इतना विस्तृत वर्णन मिलता है कि सन्देह के लिए कोई स्थान ही नहीं है । बौद्ध और ब्राह्मण परम्पराएँ भी इसका समर्थन करती है ।
यह बात बार-बार पूछी जाती है कि नरक के शारीरिक दुःखों का वर्णन ही बार-बार क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि आत्मा सुख-दुःख से परे है, अजर-अमर-अविनाशी है । आत्मा को कोई मार-काट या जला नहीं सकता। तो फिर जो भी दुःख है वह शारीरिक ही होगा । दूसरी एक बात कही जाती है कि इसी पृथ्वीतल पर हम जो भी नरकसदृश रोग, दुःख, पीडा, प्रदूषण, आतंकवाद, युद्ध आदि भोग रहे हैं - यही नरक है । इसके प्रतिवाद में कहती हूँ कि यह तो इस अवसर्पिणीकाल के पंचम आरे का प्रभाव है । इस काल में पाये जानेवाले सुखदुःख, सुखाभास और दुःखाभास है । इसलिए वे नरक के दुःख नहीं हो सकते ।
मनुष्य अपने सभी कृत पापकर्मों को यहाँ नहीं भोग पाता है । इसके लिए हमारे पास श्रेणिक राजा, श्रीकृष्ण आदि कई उदाहरण है । इसलिए मेरा मानना है कि भगवान की वाणी त्रिकाल सत्य है । नरक एक संकल्पना न होकर सत्य ही सत्य है, वास्तविकता है।