________________
पुरुषार्थसिद्धयुपाय
रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन । इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ॥
(83)
अन्वयार्थ - (अस्य) इस (एकस्य एव) एक ही हिंसक जीव के ( जीवहरणेन) प्राण नष्ट करने से (बहूनाम् ) बहुत से जीवों की (रक्षा भवति) रक्षा होती है (इति) इस प्रकार ( मत्वा ) मान कर (हिंस्रसत्त्वानाम् ) हिंसा करने वाले प्राणियों की ( हिंसनं न कर्तव्यं) हिंसा नहीं करना चाहिये।
83. “By killing one being that kills others, one saves many." Putting your belief on this, do not kill even those beings which kill others.
बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् । इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्राः ॥
(84)
अन्वयार्थ - (अमी) ये (बहुसत्त्वघातिनः) बहुत जीवों की हिंसा करने वाले हिंसक जीव (जीवन्त) जीते हुए (गुरु पापम् ) बहुत पाप को (उपार्जयन्ति) इकट्ठा करते हैं (इति) इस प्रकार (अनुकम्पां) दया को (कृत्वा) करके (हिंस्त्राः) हिंसा करने वाले (शरीरिणः) शरीरधारी-जीव (न हिंसनीयाः) नहीं मारने चाहिये।
84. “Killers of many jivas, if left alive, are bound to accumulate still greater sins.” This fallacious argument should not prompt one to kill, out of mercy, even those living beings who kill habitually or naturally.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
.
57