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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसानि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥
(73)
अन्वयार्थ - (पुनः) फिर (यानि) जो फल (शुष्काणि तु) सूखे हुए भी (कालोच्छिन्नत्रसानि) काल पाकर त्रस जीवों से रहित हो जायें (तानि अपि) उनको भी (भजतः) सेवन करने वाले को (विशिष्टरागादिरूपा) विशिष्ट रागादि रूप ( हिंसा स्यात् ) हिंसा होती है।
73. Even if these fruits be eaten on having dehydrated over time, and hence free from mobile beings, himsā is caused due to the presence of excessive desire for them.
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥
(74)
अन्वयार्थ - (अमूनि ) इन (अष्टौ) आठ पदार्थों को (अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि) अनिष्ट, कठिनता से छूटने वाले और पापों की खान स्वरूप (परिवर्ण्य) छोड़कर ही (शुद्धधियः) शुद्ध बुद्धि वाले पुरुष (जिनधर्मदेशनायाः) जिनधर्म के उपदेश ग्रहण करने के ( पात्राणि भवन्ति) पात्र होते हैं।
74. Those men of pure intellect who renounce all these eight things which cause distress, difficult to give up, and mines of insuperable sins, are worthy recipients of the precepts of the Jaina religion.
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