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पुरुषार्थसिद्धयुपाय is what the sinful act of himsā warrants; for another, the fruit of the same act of himsā, on its fruition, is what the virtuous act of ahimsa warrants.
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ॥
(57)
अन्वयार्थ - (अपरस्य तु) किसी को तो ( अहिंसा) अहिंसा (परिणामे) उदयकाल में ( हिंसाफलं) हिंसा के फल को (ददाति) देती है, (तु पुनः ) और (इतरस्य) किसी को (हिंसा) हिंसा (अहिंसाफलं) अहिंसा के फल को (दिशति) देती है (न अन्यत्) अन्य फल को नहीं।
57. Further, an act of ahimsā, on fruition, gives the fruit of himsā to one person, and, to another, anact of himsā, on fruition, gives the fruit none other than that of ahimsā.
इति विविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढदृष्टीनाम् । गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥
(58)
अन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार (सुदुस्तरे ) अत्यन्त कठिन (विविधभङ्गगहने) अनेक प्रकार के भङ्ग भेद-प्रभेदरूप गहन वन में (मार्गमूढदृष्टीनाम् ) जिनमार्ग को भूले हुए पुरुषों के लिये (प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः) अनेक नयसमूह को भली-भांति जानने वाले (गुरवः) श्रीगुरू-आचार्य महाराज ही (शरणं भवन्ति) शरण होते हैं।
58. Thus, to those who have lost their way in the difficult-tounderstand, multiple viewpoints, like a traveller lost in a thick
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