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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय addition of the sense of hearing. Those endowed with mind have ten with the addition of the mind.
Jain, S.A., Reality, p. 62, 63, 196.
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥
(44)
अन्वयार्थ - (खलु) निश्चय करके (रागादीनां) रागादिक भावों का (अप्रादुर्भावः) उदय में नहीं आना (अहिंसा) अहिंसा ( भवति) कहलाती है, (इति) इसी प्रकार (तेषाम् एव ) उन्हीं रागादिक भावों की ( उत्पत्तिः) उत्पत्ति का होना (हिंसा) हिंसा है, (इति जिनागमस्य) इस प्रकार जिनागम का अर्थात् जैन-सिद्धांत का ( संक्षेपः) सारभूत रहस्य है।
44. From the transcendental point of view (niśchaya naya), non-manifestation of passions like attachment is non-injury (ahimsā), and manifestation of such passions is injury (himsā). This is the essence of the Jaina Scripture.
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥
(45)
अन्वयार्थ - (युक्ताचरणस्य) योग्य आचरण वाले अर्थात् यत्नाचार पूर्वक सावधानी से कार्य करने वाले (सतः) सज्जन पुरुष को (रागाद्यावेशम्) रागादिरूप परिणामों के उदय हुए (अंतरेण) बिना (प्राणव्यपरोपणात् एव) प्राणों का घात होने मात्र से (जातु) कभी (हि) निश्चय करके ( हिंसा न भवति) हिंसा नहीं लगती है।
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