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पुरुषार्थसिद्धयुपाय एकमपि प्रजिघांसुः निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥ (162)
अन्वयार्थ - (यतः एक अपि प्रजिघांसुः) क्योंकि एक भी अनन्तकाय से भरे हुये पिण्ड को जो नष्ट करने की इच्छा करता है वह ( अनन्तान् निहन्ति) अनन्त जीवों को मार डालता है (ततः) इसलिये (अशेषाणां अनन्तकायानाम् ) समस्त अनन्तकाय वाले पदार्थों का (अवश्यम् परिहरणम् करणीयम् ) अवश्य त्याग करना चाहिये।
162. Since the destruction of vegetation containing singlebodied group-souls (anantakāya vegetables - the ones which infinite jivas adopt as their one and common body) causes hiņsā of infinite jivas, therefore, all such vegetables must not be consumed.
नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् । यद्वापि पिशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किश्चित् ॥
(163)
अन्वयार्थ - (प्रभूतजीवानाम् योनिस्थानं) अनेक जीवों के उत्पत्ति होने का योनिस्थान ऐसा (नवनीतं च त्याज्यं) लौनी-मक्खन भी छोड़ देना चाहिये। (यद्वा पिशुद्धौ अपि) अथवा कुछ काल तक पिङशुद्धि रहने पर भी अर्थात् उस पदार्थ में जीवराशि नहीं उत्पन्न होने पर भी (किञ्चित् विरुद्धम् अभिधीयते ) कुछ विरुद्धता प्रगट की जाती है वह भी त्याज्य है।
163. Butter, the birthplace of numerous jivas after a certain period of time, should also be given up. All victuals which impinge, even slightly, on the purity of food, should be avoided.
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