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आधार और इस प्रकार हम हमेशा दूसरों का मुंह ताकते हैं। कभी भी हममें वह आत्मविश्वास नहीं जागता। हममें जब ज्ञान का अभाव होता है तो हम उसकी पूर्ति शास्त्रों से, गुरुओं से और दूसरों के उपदेशों से सूचनाएँ इकट्ठी करके करते हैं। हममें जब प्रेम का अभाव होता है, हम जब सबको अपना नहीं समझ सकते, और हमें जब ऐसा लगता है कि बदले में कोई हमें भी अपना नहीं समझता, तब हम उस प्रेम अनुभव के अभाव की पूर्ति स्त्री, पुत्र और सम्बन्धियों को अपना समझकर और इस भ्रम में रहकर कि वे सब मुझे चाहते हैं, कर लेते हैं । पर प्रेम करने का और प्रेम पाने का जो अलौकिक सुख है, उससे हम वंचित रह जाते हैं।
प्रेम उसका नाम है जो समस्त संसार को अपने में समा ले और अपने को समस्त संसार में समा दे। प्रेमी के हृदय में इतना अधिक स्थान होता है कि उसमें समस्त संसार समा सकता है किन्तु प्रेमी के हृदय में अहं के लिए तनिक भी स्थान नहीं होता। प्रेमी का प्रेम राग से भिन्न है। क्योंकि राग किसी आन्तरिक अभाव की पूर्ति के लिये किया जाता है और प्रेम अन्तर की पूर्णता से प्रस्फुटित होता है। प्रेम चित्त के निर्मल हो जाने पर उससे प्रवाहित होने वाली एक ऐसी सहज स्वाभाविक क्रिया है, जो दूसरों की प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं रखती। सूर्य में से प्रकाश प्रस्फुटित होता है। किन्तु सूर्य उस प्रकाश के द्वारा दूसरों की किसी प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। फूल में से सुगन्ध निकलती है, वह किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं निकलती, बल्कि इसलिये निकलती है कि वह फूल में है और या तो उसे इधर उधर बिखरना होगा और नहीं तो वह सुगन्ध फूल में बन्द रहकर दुर्गन्ध बन जाएगी। पर वह गन्ध किसी के उपकार के लिए, किसी की भलाई के लिए, किसी को सुख पहुँचाने के लिए नहीं निकलती और इसलिए बदले में किसी से प्रत्युपकार भी नहीं चाहती। सूर्य और फूल देना ही जानते हैं, लेना नहीं जानते, प्रेम भी देना ही जानता है, लेना नहीं जानता। स्वयं प्रेम को यह पता भी नहीं होता कि वह दे रहा है इसलिए उसमें यह अहंकार भी नहीं होता कि वह देने वाला है
और उसे यह आकांक्षा भी नहीं होती कि उसके उपकार के बदले में कोई उस पर उपकार करेगा। ऐसा प्रेम जब जीवन में व्याप्त हो जाता है तब आन्तरिक प्रभावों की सच्ची पूर्ति हो जाती है। अहंकार की गति बड़ी सूक्ष्म है। त्याग का तो अहंकार होता ही है, अहंकार इस बात का भी हो सकता है-और यह अहंकार अधिक भयानक है—कि मुझे अहंकार नहीं है। जब तक अहंकार का विसर्जन नहीं है तब तक प्रेम नहीं है और जब तक प्रेम नहीं है तब तक न विकास है न पूर्णता। बीज अपने अहंकार को खोकर