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नहीं पहुँच पाएँगे । शास्त्र हमें सत्य का मार्ग दिखलाते हैं, सत्य की प्राप्ति नहीं करा सकते । क्योंकि सत्य मैं स्वयं हूँ और वह मेरे से बाहर न शास्त्र में है, न गुरु के उपदेश में, न मन्दिर में सबको अपना-अपना सत्य स्वयं खोजना होता है क्योंकि सत्य को किसी दूसरे को न दिया जा सकता है न दूसरे से लिया जा सकता है । वह हमारा स्वरूप है, हमारा परिग्रह नहीं है, जिसे हम कभी उतार सकें और कभी धारण कर सकें, कभी किसी को दे सकें और कभी किसी से ले सकें ।
सारी यात्रा सम्यक् दर्शन से, श्रवरण से प्रारम्भ होती है और उसका अन्त ध्यान पर होता है । यहाँ आकर सारे भारतीय दर्शन एक हो जाते हैं कि जीवन का चरम लक्ष्य एक ऐसी निविचार अवस्था है जहाँ स्व अपने में स्थित हो जाता है । हमने यहीं से प्रारम्भ किया था कि धर्म वस्तु का स्वभाव है और धर्म के समस्त विवेचन का अन्तिम निष्कर्ष भी यही है कि धर्म स्वरूप में स्थिति है यही सम्यक् चारित्र्य है, जो कुछ हम इसके अतिरिक्त अच्छे आचरण के नाम पर करते हैं, उसमें कहीं न कहीं कोई न कोई वासना है, स्वर्ग की इच्छा, मोक्ष की इच्छा, धर्मपालन की इच्छा, और जहां तक इच्छा है, वहाँ तक संसार है । जहाँ स्वरूप की प्राप्ति की इच्छा है, वहाँ भी धर्म नहीं है, बन्धन ही है । इसीलिए हमने कहा कि इसे बहुत सहज भाव से करना है। हमारे जन्म जन्मान्तरों के संस्कार, वासनाएं, कहीं न कहीं हमारे मन में प्रतिक्रिया को जगाकर हमारे सहज स्वरूप को बाधित कर देती हैं । हमारी वृत्ति को बारम्बार धकेल कर बहिर्मुखी बना देती हैं और हमारे ध्यान, हमारी साधना के मार्ग में बाधा आ जाती है । हमें इन बाधाओं से सावधान रहना छोटी बाधा को
है, इन्हें विलीन भी करना है पर इस समाप्त करने के लिए उससे बड़ी बाधा
ढंग से नहीं कि एक उत्पन्न कर लें ।