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मुनि : ध्यानपद
हमने ऊपर कहा कि शास्त्र हमारे लिये तभी सहायक हो सकते हैं जब हम सम्यक् दृष्टि हों, सत्य श्रावक हों। सच्चे श्रवण और दर्शन के बाद मुनि पद अर्थात् सच्चा मौन प्रारम्भ होता है। मौन अर्थात् संसार की किसी क्रिया, किसी विचार, किसी दृश्य की कोई प्रतिक्रिया नहीं करना । केवल उसे जानना, उसे देखना, केवल साक्षी, द्रष्टा, चेत्ता बने रहना। यह मुनिपद है । क्योंकि यहाँ मौन है। इस मौन में ध्यान का अवतार होता है। ध्यान कोई क्रिया नहीं है । ध्यान समस्त क्रियाओं का अभाव है। पर ध्यान समस्त क्रियाओं का अभाव भी नहीं है। ध्यान केवल क्रिया है, प्रतिक्रिया नहीं है। समस्त क्रिया का अभाव तो मूच्छित अवस्था में होता है। मूच्छित अवस्था शायद बहुत कुछ निगोद अवस्था जैसी है। वहाँ क्रिया का अभाव है। पर वह ध्यान नहीं है । ध्यान में पूर्ण जागरूकता है, पूर्ण चैतन्य है। अक्रिया में हम जड़ के साथ, शरीर के साथ एकाकार हो जाते हैं और हमारा चैतन्य जैसे मर जाता है । यह सुषुप्ति है। किन्तु ध्यान में हम चैतन्य के साथ एकाकार हो जाते हैं और हमारा जड़, हमारा शरीर जैसे मर जाता है । और इस ध्यान से ज्ञान उत्पन्न होता है। वह ज्ञान जो सब ज्ञान का मूल है, केन्द्रबिन्दु है, अर्थात् स्व का ज्ञान । जब स्व का ज्ञान होता है, तब अन्य पदार्थों का ज्ञान निरर्थक हो जाता है। इस ज्ञान में जानना है, सीखना नहीं। शास्त्रों का अध्ययन हमें सिखाता है और हम जो कुछ सीखते हैं, उन्हें अपनी स्मृति में सुरक्षित रखते जाते हैं और अवसर आने पर हम उन्हें दुहरा देते हैं। यह कार्य एक यांत्रिक कार्य है । यह कार्य प्रात्मा के गौरव के अनुकूल नहीं है। मनुष्य के लिये यह अनुरूप नहीं है कि वह केवल यन्त्र बना रहे । किन्तु जितना हमारा सीखना है, वह सब यान्त्रिक क्रिया है। जैसा हमने सीखा, वैसा हमने दुहरा दिया। इसमें अनुभूति नहीं है। और जहाँ अनुभूति होती है, वहाँ शब्द नहीं हो सकते । क्योंकि शब्द हमें अनुभूति के स्तर से हटा कर विचारों के स्तर पर ले आते हैं; वहाँ संकल्प हैं और जहाँ संकल्प हैं वहाँ पारस्परिकता है, वहाँ सम्बन्धसापेक्षता है और जहाँ सम्बन्ध-सापेक्षता है वहां न तो सत्य का दर्शन है और