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धर्मः वस्तुस्वभाव
वस्तु का स्वभाव धर्म है। ऐसा महावीर ने कहा । यह परिभाषा वस्तुपरक है व्यक्तिपरक नहीं। इसे जब व्यक्तिपरक बनाएंगे तो आत्मस्वभाव ही धर्म है, ऐसा अर्थ फलित होगा। हमने ऊपर कहा कि पाश्चात्य दर्शनों में ऐथिक्स शब्द न केवल धर्म के सही अर्थ को बतलाने में असमर्थ है, प्रत्युत कहींकहीं धर्म से विपरीत अर्थ का भी द्योतक है । इसका अभिप्राय यह है कि धर्म वस्तु का स्वभाव है, उसका आत्मधर्म है; किन्तु परम्परा या आदत जिसे हम "ऐथिक्स" शब्द से कहते हैं वह वस्तु का सहज स्वभाव नहीं है प्रत्युत बाहर से उपलब्ध स्वभाव है। यह उपलब्ध स्वभाव वस्तुतः स्वभाव नहीं है, विभाव है। यह धर्म नहीं है, धर्माभास है। यदि धर्म शब्द के इस अर्थ पर विचार करें तो हमें लगेगा कि रूढ़िवाद के मूल पर कुठाराघात होता है । रूढ़ियां समाज की देन हैं, धीरे-धीरे विकसित होने वाली हमारे सहज स्वभाव से बाह्यभूत घटनाएँ हैं। वे धर्म कैसे हो सकती हैं ? हां, एक परम्परा को मानने वाले अपनी परम्पराओं को पवित्र मानकर अपने को एक गुट मान लें, तो वह एक सम्प्रदाय बन सकता है। किन्तु यह सम्प्रदाय धर्म नहीं है । धर्म और सम्प्रदाय का कार्य एक दूसरे के सर्वथा विपरीत है। धर्म हमारी विभिन्नताओं को, विविधता को दूर करके एकता की स्थापना करता है और सम्प्रदाय हमें हमारी विभिन्नताओं के आधार पर विभक्त करता है। धर्म जोड़ता है, सम्प्रदाय तोड़ता है।
किन्तु धर्म का अर्थ परम्परा का पालन भी अवश्य रहा है। यह परम्परा हमें शास्त्रों में सुरक्षित मिलती है और विश्व के सभी मनीषियों ने शास्त्र की महत्ता पर अत्यधिक बल दिया है। स्वयं महावीर ने कहा है 'मेरी आज्ञा धर्म है ।' मीमांसा दर्शन के रचयिता जैमिनि कहते हैं, धर्म वही है जो शास्त्र में कहा गया है। गीता में कृष्ण ने कहा कि कार्य और अकार्य का यदि विवेक करना हो, तो शास्त्र ही प्रमाण है। मनुस्मृति में वेद और स्मृति को धर्म के १. आणाए मामगं धम्म ।
आचाराङ्ग १.६.२.१८०. २. चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः ।
मीमांसादर्शन, बनारस १९२६, १.१.२. ३. तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थिती।
गीता, १६.२४.