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धता चाहिए और इस विविधता के लिए व्यक्ति को समाज के अनुचित नियंत्रण से मुक्ति चाहिए। फिर भी भौतिकवाद के और साम्यवाद के प्रादुर्भाव ने दार्शनिकों के लिए नये ढंग से सोचने की सामग्री दी है और पुराना चिन्तन जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होते होते स्थूल से सर्वथा विच्छिन्न हो गया था, उसे फिर से स्थूल की ओर आने के लिये प्रेरणा दी है। और इस प्रकार साम्यवाद और अध्यात्मवाद यदि सापेक्षता की शरण लें, यदि अहं को छोड़ें और मानवता के हित को, किसी सिद्धान्त की अपेक्षा, सर्वोपरि रखें तो एक ऐसी समन्वित संस्कृति का विकास सम्भव है जिसमें न तो स्थूल के पीछे सूक्ष्म की अस्वीकृति हो और न सूक्ष्म के पीछे स्थूल की उपेक्षा।