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* इसके विपरीत कर्म सिद्धान्त का उन लोगों ने जो समाज में प्रतिष्ठित स्थान पाए हुए हैं, अनुचित उपयोग करना शुरू किया। समाज में फैली हुई विषमता उनके शोषण का परिणाम है किन्तु उन्होंने उस विषमता को प्रकृति की देन बतलाकर शोषित वर्ग को सुप्त रखना चाहा। परिणामतः साम्यवाद का जन्म हया। और शोषकों के साथ-साथ धर्म, जिसकी ठेकेदारी उन शोषकों ने ले ली थी, निन्दित हुआ । इस प्रकार धर्म को दुरुपयोग करने वाले व्यक्तियों का पाप धर्म को भी ले डूबा और बहुत जोर से यह विचारधारा पनपने लगी कि धर्म तो शोषितों के जागरण को रोकने के लिए दी जाने वाली एक मादक अफीम है। धर्म जो मनुष्य को युग-युग की नींद से जगाने के लिए है, निद्रा में सुला देने वाला माना जाने लगा। और आज हम जानते हैं कि संसार का एक बहुत बड़ा भाग जो बहुत सम्पन्न है, समृद्ध है और प्रबुद्ध भी है धर्म को सर्वथा छोड़ चुका है, वहाँ धर्म की चर्चा करना भी एक अपराध है।
हमें इन दोनों अतियों से बचना है—एक ओर तो अपने सब दोषों को दूसरे के सिर थोपना और दूसरी ओर दूसरों का शोषण करते हुए अपने दोषों को दूसरों के भाग्य के सिर पर थोपना है। हम पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि जब हम कार्य-कारण सम्बन्ध को मानेंगे तो अंशतः हमें भाग्य को भी मानना होगा, नियति को भी मानना होगा और इसका यह अर्थ नहीं कि हम सर्वथा बँधे हुए हैं। हमें एक विशेष सीमा तक छूट भी है, स्वतन्त्रता भी है। फिर यदि शोषितों के दुखों को हम उनके पापों का फल बतलाकर अपने आप को शोषण के पाप से मुक्त करना चाहें तो साथ ही हमें यह भी तो सोचना होगा कि शोषण भी तो एक पाप है, शायद सबसे बड़ा पाप है क्योंकि शोषण करते समय हम अपने स्वरूप को भूल जाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि वह व्यक्ति जिसका हम शोषण करना चाहते हैं, वैसा ही है जैसा मैं स्वयं हैं।
और इसका यह परिणाम होता है कि हम स्वयं एक बड़े पाप के गर्त में पड़ जाते हैं । वस्तुस्थिति यह है कि जिस व्यक्ति को पाप करना है, उसके लिए वह कोई भी सिद्धान्त प्रयोग में ला सकता है, उसे तोड़ सकता है, मरोड़ सकता है। चाहे वह सिद्धान्त कर्म सिद्धान्त हो, चाहे धर्म हो, चाहे भाग्य, चाहे ईश्वर और इन सबका मानवता के आधार पर खण्डन करने वाला स्वयं साम्यवाद क्यों न हो।
साम्यवाद के सिद्धान्त में क्या कमजोरियाँ हैं ? केवल एक वही कमज़ोरी है, जो उन सब सिद्धान्तों में थी जिन सिद्धान्तों का खण्डन करके साम्यवाद उभरा अर्थात् असहिष्णुता । कौन नहीं मानेगा कि सब मनुष्य-और जैन दर्शन तो कहेगा कि प्राणीमात्र समान हैं। सबको अपनी-अपनी दिशा से उन्नति