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मानने होंगे, यद्यपि साधारणतः उनकी गणना नास्तिक दर्शनों में की जाती है । इसका आधार सम्भवतः यह रहा होगा कि मनुस्मृति में कहा गया है कि जो वेद की निन्दा करता है, वह नास्तिक है ।" जैन और बौद्ध दोनों ही वेद को स्वतः प्रमाण नहीं मानते ।
अस्तु, हम प्रकृत का अनुसरण करें। जैन धर्म में जैसाकि हमने ऊपर कहा, भाग्य और पुरुषार्थ के समन्वय की कल्पना की गई है । जैसाकि हमने पहले भी कहा इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा इस समस्या को सुलझाने के लिये चारा भी नहीं है । इसीलिये जैन दर्शन में पुरुषार्थ के साथ-साथ नियति की भी चर्चा है । द्वादशानुप्रेक्षा में यह कहा गया है कि जिसका जिस देश में और जिस समय जिन भगवान ने जन्म या मरण जाना है, उसका उस देश में और उस प्रकार से उस काल में जन्म या मरण रोकने में कौन इन्द्र या स्वयं जिनेन्द्र भी समर्थ है ? २ प्रष्टसाहस्री में कहा गया है कि उसी प्रकार की बुद्धि उद्योग और सहायक हो जाते हैं जिस प्रकार की भवितव्यता होती है । पद्मपुराण में कहा है कि जब जिसे जहां जितना और जिससे प्राप्त करना होता है, तब वह वहां उतना उससे ही प्राप्त करता है । यह वाक्य कुछ इस प्रकार के हैं जिनसे ऐसा लगता है कि मानो भाग्य ही सब कुछ है । किन्तु यह वस्तु-स्थिति का केवल एक पक्ष है ।
१. नास्तिको वेदनिन्दकः - मनुस्मृति २.११.
२.
जं जस्स जम्मि देशे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि णादं जिणेण नियदं जम्मं वा श्रइब मरणं वा । तं तस्स तस्मि देसे तेण विहाणेण तस्मि कालम्मि को सक्कदि वारेयुं इंदो वा ग्रह जिणिदो वा ॥
४.
- कात्तिकेयानुप्रेक्षा, आगास, १९६०, पृ० ३२१-२२.
३. तादृशा जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः ।
सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥
- विद्यानन्दी सूरि, प्राप्तमोमांसा, राजनगर, वि० स० १६६३, पृ०५ पर उद्धृत
यत्प्राप्तव्यं यदा येन यत्र यावद्यतोऽपि वा तत्प्राप्यते तदा तेन तत्र तावत्सतो ध्रुवम् ॥
-- पद्मपुराण, काशी, १६५६, २६-८३.