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का सदा डट कर सामना किया है। पर वह जातिवाद का उन्मूलन नहीं कर सका । प्रत्युत समय के प्रभाव से स्वयं उसका शिकार हो गया । आज समय की गति विपरीत दिशा में है. संविधान ने जातिवाद को, अस्पृश्यता को गैरकानूनी करार दे दिया है और यह जैन धर्म के लिये स्वागत का विषय होना चाहिए क्योंकि जातिवाद का विरोध उसकी मूल धर्म भावना से सर्वथा मेल खाता है । किन्तु जातिवाद के ही प्रबल समर्थक ब्राह्मणों में और हिन्दू धर्मावलम्बियों में तो जातिवाद के विरुद्ध आवाज उठाने वाले बड़े-बड़े युगपुरुष हुए, किन्तु अपवाद को छोड़ दें, तो जैनधर्मावलम्बियों ने इस विषय में न केवल उदासीनता बरती, प्रत्युत सामान्यतः अपनी रूढ़िवादिता का ही परिचय दिया । मन्दिरों के हरिजन प्रवेश इत्यादि विषयों पर समाज का नेतृत्व करना तो दूर रहा, समाज का सहयोग भी नहीं दिया । वे समय की नब्ज को नहीं पकड़ सके और परिणाम यह हुआ कि एक बहुत बड़े कार्य को जिसे वे बहुत अच्छी प्रकार कर सकते थे, उन्होंने नहीं किया और इस विषय में नेतृत्व अजैनों के हाथ में रहा । भला कार्य किसी के भी माध्यम से हो, यहाँ विवेचना का विषय यह नहीं है कि वह कार्य अजैनों के माध्यम से क्यों हुआ । विचारणीय प्रश्न यह है कि वह कार्य जैनों के माध्यम से क्यों नहीं हुआ ।
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दूसरी ओर हम देखते हैं कि समय के प्रभाव का बहाना लेकर धर्म के स्वरूप में ऐसे-ऐसे विकार आ रहे हैं जो धर्म की मूल भावनाओं से मेल नहीं खाते । यहाँ उन विकारों की नामतः चर्चा करना अशोभनीय होगा किन्तु धर्म में आये हुए उन विकारों से हम सब परिचित हैं, आपस में गुपचुप उसकी चर्चा भी करते हैं, पर उसे समय का प्रभाव कहकर टाल जाते हैं और वहाँ हमें वह पुरुषार्थं का सन्देश जो महावीर ने दिया, और जो हमें कोरा समय की हाथ की कठपुतली होने से बचाता है, हमारे किसी काम नहीं आता । यह कालवाद का दुष्प्रयोग है, यह कालवाद की मिथ्यादृष्टि है । पर इसके विपरीत समय के प्रभाव से आने वाले दुष्प्रवृत्तिपूर्ण कार्यों में चट्टान के समान सुदृढ़ भाव से खड़ा होने वाला और समय की गति को पहचानते हुए धर्म के मौलिक सिद्धांतों का ध्यान रखते हुए तदनुकूल धर्म के बाह्य रूप में सुधार को लाने वाला सम्यक् कालवादी होगा, उसकी काल-दृष्टि सम्यक् है ।
१. एक्का मणुस्सजाई - आचाराङ्गनिर्युक्ति, १६.
द्रष्टव्य उत्तराध्ययन, १२.३७ तथा प्रादिपुराण, ३८.४५.