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नींव नहीं रखी जाती । वस्तुतः समस्त अद्वैतशास्त्रों में भी यह घोषणा पद-पद पर की गई है कि हम भावाद्वैत का प्रतिपादन करते हैं, क्रियाद्वैत का नहीं। अर्थात् क्रिया के क्षेत्र में या प्राचार के क्षेत्र में अद्वैत पूरा नहीं उतरता। स्वयं वेदान्त को इसीलिए पारमार्थिक सत्ता के साथ-साथ व्यावहारिक सत्ता भी स्वीकार करनी पड़ी। इस सम्बन्ध में वेदान्त को ही केन्द्र मानकर लिखने वाले डॉ० राधाकृष्णन के ये शब्द विशेष रूप से उद्बोधक हैं, "चैतन्य आत्मा को पंचभूतों का कार्य समझना पाचारमीमांसा की दृष्टि से उतना ही निष्प्रयोजन है जितना कि यह मानना कि यह विविध रूप जगत् एक ही चैतन्य तत्त्व का विविध रूप है।"१ जैन दर्शन ने इस स्थिति को समझा और भावात्मक ऐक्य पर जो सब प्राणियों की समानता का मूलाधार है, बल दिया। किन्तु द्रव्यात्मक ऐक्य जो प्राणियों की समानता का नहीं, प्रत्युत एकता का आधार बनता है, उसका खण्डन किया और इस प्रकार जैन दर्शन ने जीवन की सरिता को मूर्त और अमर्त, जीव और अजीव दो किनारों के बीच बहने वाली धारा के रूप में स्वीकार किया जिसमें दो किनारों को जोड़ने वाली कड़ी हमारे संस्कार हैं और क्योंकि यह संस्कार या यह कर्म मर्त और अमर्त को जोड़ते हैं, इसलिए इनमें मूर्त और अमूर्त दोनों गुण हैं, यह भाव रूप भी हैं और द्रव्य रूप भी हैं, इनका द्रव्य रूप मूर्त को पकड़े हुए है और इनका भाव रूप अमूर्त को पकड़े हुए है और इस प्रकार जड़ और चैतन्य की एक सन्धि है जो इस संसार का मूल कारण है और जिस सन्धि को तोड़ देना ही चैतन्य की जड़ के प्रभाव से मुक्ति है। हमने ऊपर क्रोध, मान, माया और लोभ जैसी निषेधात्मक शक्तियों का उल्लेख किया और यह भी उल्लेख किया कि किस प्रकार दिशा भ्रम हमें समस्त प्रयत्नों में विफल बना देता है। हमने हिंसा, झूठ, चोरी, बहिर्मुखी वृत्ति और परिग्रह जैसी अपनी प्रवृत्तियों का उल्लेख किया, जो हमारी जड़, चैतन्य से काट कर जड़ में जोड़ देती हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि इनके मूल में प्रमाद है, असावधानी है, हमारी कुछ मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियायें हैं। इस प्रकार कषाय, मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, योग और बन्ध, चैतन्य को जड़ से जकड़े हुए हैं, जिनका नियन्त्रण करना है, और इन प्रवृत्तियों के कारण जो संस्कार हममें पहले से विद्यमान हैं, उनका उन्मूलन करना है और इस प्रकार चैतन्य को वैभाविक गुणों से मुक्त करके
१. Radhakrishnan, S. Indian Philosophy, Vol. I, पृ० ३१२.