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सुखप्राप्ति : विधिपरकदृष्टि
ऊपर हमने जिन दो परम्पराओं का उल्लेख किया है उनमें एक वह परम्परा है जो धर्म का उद्देश्य केवल दुःख की निवृत्ति मानती है और दूसरी वह परम्परा है जो धर्म का उद्देश्य केवल दुख की निवृत्ति ही नहीं, प्रत्युत सुख की प्राप्ति भी मानती है । जैन दर्शन इस दूसरी परम्परा के अन्तर्गत आता है। किन्तु यहाँ यह देखने की बात है कि हमारा दृष्टिकोण निषेधात्मक है या विध्यात्मक, अर्थात् हम आनन्द की प्राप्ति को प्रधान मानते हैं या दुख की निवृत्ति को? हमारा प्रयास आनन्द की प्राप्ति के लिये है या दुख की निवृत्ति के लिए? यह ठीक है कि ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं। किन्तु प्रश्न हमारी दृष्टि का है कि हम महत्व
और प्राथमिकता किसे देते हैं और यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि इसका हमारे आचरण पर बहुत प्रभाव पड़ता है। कमरे में अन्धकार है किन्तु अन्धकार को दूर करने के सारे प्रयत्न व्यर्थ हैं । धकेल-धकेल कर अन्धकार को कमरे से नहीं हटाया जा सकता। आवश्यकता है इस दृष्टिकोण की कि हमें कमरे में प्रकाश लाना है न कि इस दृष्टिकोण की कि अन्धकार हटाना है । अन्धकार के हटाने के लिये कोई पृथक् प्रयत्न अपेक्षित नहीं है, केवल प्रकाश को लाने भर की देर है कि अन्धकार स्वतः दूर हो जाएगा। यह दृष्टिकोण इस बात का आधार बनता है कि हम धर्म को विधिपरक बनाते हैं या निषेधपरक । आत्मस्वरूप सुखरूप है, यदि हम उसकी ओर अपने मन को केन्द्रित करते हैं तो दुख रूप विषय भोग स्वतः हट जाते हैं । किन्तु हमने प्रश्न को गलत दिशा की ओर से हल करना शुरू किया। हमने विषयभोगों की निन्दा का स्वर इतना ऊँचा कर दिया कि विषय भोगों को छोड़ देने की बात प्रधान हो गई । धर्म का निषेधास्मक रूप बलवान् हो गया और आत्मानन्द के भोग की बात गौण पड़ गई। किन्तु यह मनुष्य के स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। मनुष्य का स्वभाव शून्य को सहन नहीं कर सकता। और हमने विषयभोगों के त्याग का उपदेश देकर एक शून्य की स्थिति तो पैदा कर दी पर उस शून्य के स्थान को भरने के लिए