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दृष्टि का बहुत अधिक प्रादर नहीं हुआ। निवृत्तिपरक धर्मों ने अर्थ और काम की भरपेट निन्दा की और कुछ ऐसे सम्प्रदाय भी चलते रहे, जैसे वाम मार्ग, जो अर्थ और काम को धर्म का विरोधी नहीं, प्रत्युत सहायक मानते रहे और इन दोनों मार्गों ने अपने-अपने क्षेत्र में अति कर दी। जो धर्म का उद्देश्य केवल मोक्ष मानते थे अर्थ और काम की अवहेलना करते थे, उन्हें तो कठोपनिषद् के इन वाक्यों में अपने मत की पुष्टि का समर्थन मिला कि श्रेय और प्रेय एक दूसरे के विपरीत हैं, दोनों का विपरीत फल है और दोनों का समन्वय नहीं हो सकता।' वाममार्गी लोगों ने श्रुति को प्रमाण न मानकर तन्त्रों को प्रमाण माना और तन्त्रों में इस प्रकार के वाक्य खोज निकाले, जिनमें अर्थ और काम को ही मोक्ष का साधन माना था।
ये दोनों परम्पराएँ एक दूसरे की विपरीत दिशा में बहती रहीं और दोनों का रूप अत्यन्त विकृत हो गया। निवृत्तिमार्गी संसार की इतनी अधिक उपेक्षा कर बैठे कि उनकी स्थिति समझदार लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बन गई
और वाममार्गी साधारण सदाचार का इतनी सीमा तक उल्लंघन कर गए कि समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया। सबसे बड़ी बात यह थी कि न तो प्रात्यन्तिक निवृत्ति मार्ग समाज के लिए कुछ देता था क्योंकि उसमें समाज का कोई स्थान ही नहीं था और वाममार्ग समाज के नियमों के स्पष्टत: इतना विरुद्ध जाता था कि उसका बहिष्कार समाज ने कर दिया। इस प्रकार अभ्युदय
और निश्रेयस के समन्वय का जो मार्ग वैशेषिक सूत्र में हमें उपलब्ध होता है, वह केवल एक सिद्धान्त ही बनकर रह गया, व्यवहार में नहीं उतर सका।
हमने सभी वैदिक और जैनेतर अवैदिक दर्शनों के अनुसार प्रस्तुत समस्या पर ऐतिहासिक और आलोचनात्मक पद्धति से विचार करने का प्रयत्न किया। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि दर्शन की किसी समस्या पर ऐतिहासिक पद्धति से विचार करना कठिन होता है और विशेषकर भारतीय दर्शन में यह कठिनाई और भी बढ़ जाती है क्योंकि यहाँ प्राचार्यों के या ग्रन्थों के समय सर्वथा अनिश्चित हैं। किन्तु किसी दर्शन की समस्या पर यदि ऐतिहासिक पद्धति का शुद्ध रूप से अनुसरण न भी किया जाए, तो विशेष हानि नहीं होती क्योंकि सत्य सत्य है, चाहे वह किसी भी काल से सम्बद्ध क्यों न हो। इसलिए हमने जो ऊपर विवेचन किया, उसमें यह कहना कठिन है कि इन सब दृष्टिकोणों १. श्रेयश्च प्रेयश्च विपरीतमेती
-कठोपनिषद