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धर्म : साधन नहीं साध्य
हमने कहा कि सुख के साधनों को सुख मान बैठना बहुत बड़ी भूल है और उस ही प्रकार धर्म के साधनों को धर्म मान बैठना बहुत बड़ी भूल है। यह ठीक है कि साध्य की प्राप्ति हो जाने पर साधन का महत्त्व नहीं रह जाता । और साथ ही यह भी ठीक है कि साधन को अपनाये बिना साध्य प्राप्त नहीं होता किन्तु साधन और साध्य में विवेक रहना चाहिए । पुण्य धर्म का साधन है धर्म नहीं है । साधन तो संसार में एक साध्य के न जाने कितने होते हैं किन्तु वस्तुतः साधन कहलाता वह है जिससे यथार्थ जीवन में साध्य की प्राप्ति होती है । जब तक साध्य की ठीक-ठीक पहचान नहीं है, लक्ष्य की ओर दृष्टि नहीं मुड़ी, तब तक साधन बिखरे रहते हैं, पर उन्हें साधन कहना साधन शब्द का दुरुपयोग है क्योंकि साधन और साध्य तो सापेक्ष हैं । जब साध्य का ज्ञान ही नहीं, तो यह कहना चाहिए कि उसकी सत्ता ही नहीं और दो सापेक्ष पदार्थों में जब एक की सत्ता नहीं है, तो दूसरे की सत्ता कैसे हो सकती है ? यदि हमें धर्म का, अपने स्वभाव का, अपने मौलिक स्वरूप का ज्ञान नहीं है, जिसकी प्राप्ति के साधन ही समस्त कर्म हैं, तो कर्म अपने आप में क्या कर लेगा? ऐसे व्यक्ति के किसी कर्म या प्रयास को इच्छा या बुरा क्या कहें जिसे यह ही मालूम नहीं कि उसे अपने इस प्रयास द्वारा प्राप्त क्या करना है ? उसके तो सारे ही कर्म, सारे ही प्रयास व्यर्थ हैं, वे किसी के भी साधन नहीं हैं क्योंकि वहां साध्य ही नहीं है, और यदि गलत साध्यों को साध्य मानकर उन साधनों को बरता जा रहा है, तो वे साधन उन गलत साध्यों को ही प्राप्त कराएंगे। इनमें उन साधनों का कोई दोष नहीं है।
अपने स्वरूप के ज्ञान के बिना, लक्ष्य के ज्ञान के बिना, हमारे तथाकथित पुण्य-कर्म धर्म की संज्ञा कैसे पा सकते हैं ? और जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान हो गया वह उन पुण्य कर्मों का लक्ष्य भोगों की प्राप्ति कैसे मान सकता है ?