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________________ ( ८ ) बात दोनों ही सच हैं। हमने ऊपर कहा कि धर्म वस्तु का मूलभूत स्वभाव है और वहां तर्क की गति नहीं है। यदि वहां तर्क की गति है, तो इसका यह अर्थ है कि अभी और विश्लेषण किया जा सकता है और मौलिक सत्य हमें उपलब्ध नहीं हुआ है। किन्तु जहां तर्क मौलिक सत्य को जानने में असमर्थ होने के कारण धर्म के क्षेत्र में पंगु है, वहां मौलिक तत्त्व तक पहुंचने के लिये बीच में आने वाले वैभाविक तत्त्वों का विश्लेषण द्वारा निःसारता प्रदर्शित करने में उपयोगी भी है। अतः धर्म अन्धविश्वास नहीं है। धर्म तर्कविरुद्ध भी नहीं है, वह तर्कातीत अवश्य है, क्योंकि वह स्वभाव है और इतनी बात तो कम से कम तर्कसंगत है ही कि स्वभाव तर्कगोचर नहीं होता, उसमें तर्क की गति नहीं है। वह मूलभूत तथा आधारभूत वह तथ्य है जिस पर सारे तर्क का निर्माण होता है । यदि उसे न मानें तो संसार के सारे तर्क निराधार हो जाएंगे। किन्तु उस तथ्य से पहुंचने के पूर्व, जैसाकि हमने पहले कहा, तर्क का पूर्ण महत्त्व है। - और इसीलिये धर्म का स्रोत केवल शास्त्र नहीं है। शास्त्र उन मूलभूत स्वभाव का उद्घाटक होने के नाते सर्वप्रथम अवश्य आता है, किन्तु वह एकाकी नहीं है । मनुस्मृति ने शास्त्र के साथ-साथ सदाचार और आत्मप्रियता को भी धर्म का लक्षण माना है । प्राचार्यों ने महावीर के वचनों का धर्म का स्रोत मानने के साथ-साथ अहिंसा, संयम और तप को भी माना है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म को चरित्र नाम दिया। अभयदेव ने भी यही किया। किन्तु यह सब विस्तार चाहे उसे हम चरित्र नाम दें, अहिंसा, संयम या तप कहें या सदाचार का नाम दें, है एक ही मूल वस्तु का नाम और वह है आत्मस्वभाव की उपलब्धि। क्योंकि धर्म का मूल लक्षण वस्तु का स्वभाव है । यह कहना कि हम धर्म धारण करते हैं, एक विरोधाभास है; मानो हम धर्म को जब चाहें तब धारण करें, और जब चाहें तब छोड़ दें। पर वस्तुस्थिति यह है कि हम धर्म को धारण नहीं करते, धर्म हमें धारण करता है। हमने जो कुछ ऊपर कहा, उससे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि धर्म का स्वरूप दोनों प्रकार का है-विधि-रूप भी और निषेध-रूप भी । वह भोग भी १. मनुस्मृति २.१२. २. धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। दशवकालिक, १.१. ३. चारित्तं खलु धम्मो। प्रवचनसार १.७. ४. धर्मञ्चारित्रलक्षणम् । अभयदेव की टीका, स्थानाङ्ग, ४.३.३२०.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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