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हे अष्टापद शतशत प्रणाम
१. जिसने जन्म अयोध्या में ले भूतल स्वर्ग बनाया
जिसके मुख का दर्शन करने स्वर्गपति झट आया गिरि सुमेरु पर भक्तिभाव से जाकर न्हवन कराया नाभिराज मरुदेवी निज जीवन सफल बनाया । हे
२. उशी वृषभ ने जन जन को श्रावक का मार्ग बताया
असि मसि कृषि सेवा शिल्पादिक का सन्मार्ग दिखाया फिर असार संसार जान तप त्याग मार्ग अपनाया नाभितनय श्री ऋषभनाथ ने केवल ज्ञान उपाया ॥ हे
दिव्य देशना देने प्रभुजी अष्टापद पर आये धन्य गिरी कैलाश हो गया प्रभु चरणाम्बुज पाये इन्द्रराज ने स्वर्गपुरी से मणि माणिक बरसाये भक्त जनों ने दर्शन कर भवभव पातक विनशाये ॥ हे
४. समवसरण में सुनी सभी ने जिनकी अमृत वाणी
द्वादशांगमय तत्वप्रधानी जीवमात्र कल्याणी ज्ञाता द्रष्टा चेतन तू है अजरअमर अविनाशी जड़ तत्त्वों से भिन्न स्वरूपी शाश्वत ज्ञान प्रकाशी ॥ हे
५. शुक्ल ध्यान आरुढ ऋषभ ने भव बन्धन विनशाया
निज स्वरुप में लीन प्रभु ने मुक्तिधाम को पाया चक्रवर्ती सम्राट भरतने जिन मंदिर बनवाये अष्टापद गिरि है निर्वाण भूमि - श्रद्धा सुमन चढ़ाये ॥ हे
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