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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अपना मोक्षकाल नझदीक जानकर प्रभु अष्टापद पर्वत पर पधारे। यहाँ दस हजार मुनियों के साथ भगवानने अनशन ग्रहण किया। भगवान् की इस अवस्था के बारे में सुनकर भरत तुरंत ही अष्टापद पर्वत पर गए । वहाँ भगवान् का देह विलय देखकर राजा भरत, शोक के कारण रोने लगे । इस पर फिर से भरत और विश्व के लिये सदा नमन करने योग्य है- ऐसे भगवान् के बारे में लगातार कैसे शोक किया जा सकता है ? दूसरों से जो शक्य नहीं है ऐसे कार्य करनेवाले तथा कर्म-बन्धन का त्याग करनेवाले मुमुक्षुओं के लिये तो यह भगवान् का निर्वाण विशेषरूप से महोत्सव जैसा है। ये हर्ष और शोक तो स्वार्थ का 'घात करनेवाले तथा पाप के योग्य (कारणभूत) हैं। इसलिये शोक का त्याग करके, हे बुद्धिरूपी धनवाले ! आप अपना धैर्य पुनः प्राप्त करें । इस तरह चक्रवर्ती को आश्वासन देकर इन्द्र ने भगवान् के लिये गोल, और दक्षिण दिशा में दूसरे ईक्ष्वाकु वंशियों के लिये त्रिकोण तथा दूसरे मुनियों के लिये चौकोर चिताएँ देवताओं ने बनाईं । बाद में क्षीरसागर के जल से भगवान् के शरीर को नहलाकर वस्त्र एवं अलंकारों से सजाकर इन्द्र ने उसे शिबिका में रखा। इसी प्रकार दूसरे देवों ने ईक्ष्वाकुओं के तथा इतर मुनिवरों के भी शरीर नहलाकर तथा उन्हें अलंकृत करके भक्तिपूर्वक शिबिका में रखे। इसके बाद जब कोई बाजे बजा रहे, कोई फूलों की बारिश कर रहे थे, कोई ऊँचे से गीत गा रहे तथा कोई नाच रहे थे तब चिताओं पर शरीर रखे गए। अग्निकुमार और वायुकुमार के देवों ने उन शरीरों को जल्दी ही जला डाला। इसके बाद मेघकुमारों ने बची हुई अस्थियों को ठण्डा किया। सब देवों ने अपने अपने घरों में भगवान् के तथा दूसरों के दाँत और अस्थियों की यथा योग्य पूजा करने के लिये उन्हें ले लिया। मांगने वाले कुछ श्रावकों को देवों ने तीनों कुण्डों की अग्नि दी। तबसे लेकर वे अग्निहोत्री ब्राह्मण कहलाए। कुछ लोगों ने उनकी भस्म प्राप्त करके उसे भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। तबसे भस्म से विभूषित शरीरवाले तापस कहलाए। इसके बाद उन चितास्थानों में तीन विशाल स्तूपों का निर्माण करके इन्द्रों ने नन्दीश्वर द्वीप में आनन्द के साथ अष्टाह्निका महोत्सव किया। बादमें अपने स्थानों पर जाकर तथा हृदय में जिनेश्वर भगवान् का स्मरण करते हुए देव विघ्न की शान्ति के लिये भगवान् की अस्थियों की पूजा करने लगे। इधर भरत ने भी चिता के पास की जमीन पर वर्द्धकी-रत्न द्वारा भगवान् का एक प्रासाद बनवाया। तीन कोस ऊँचे और एक योजन विस्तृत उस मन्दिर में तोरणों से मनोहर ऐसे चार दरवाजे बनवाए। इन चारों दरवाजों के पास स्वर्ग मण्डप जैसे मण्डप तथा उनके भीतर पीठिका, देवच्छन्दिका तथा देविका का भी निर्माण किया गया। उसमें सुन्दर पीठिका के ऊपर कमलासन पर आसीन और आठ प्रातिहार्य सहित अरिहन्त भगवान् की रत्नमय शाश्वत चार प्रतिमाएँ तथा देवच्छन्द के ऊपर अपनी-अपनी ऊँचाई, लाँछन (चिह्न) और वर्णवाली चौबीस तीर्थङ्करों की मणि तथा रत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की। उन प्रत्येक मूर्तियों के ऊपर तीन तीन छत्र, दोनों ओर दो-दो चामर, आराधक यज्ञ, किन्नर और ध्वजाएँ भी स्थापित करने में आयी। इनके अतिरिक्त उन्होंने अपने पूर्वजों की, भाईयों की, दोनों बहनों की तथा भक्ति से विनम्र ऐसी अपनी भी प्रतिमा का निर्माण किया। चैत्य के चारों ओर चैत्यवृक्ष, कल्पवृक्ष, सरोवर, कूँए, बावड़ियाँ और खूब ऊँचे मठ बनवाए। चैत्य के बाहर मणि-रत्नों का भगवान् का एक ऊँचा स्तूप और उस स्तूप के आगे दूसरे भाईयों के स्तूप भी खड़े किए । भरतराजा की आज्ञा से इन स्तूपों के चारों ओर पृथ्वी पर विचरण करनेवाले अनेक प्राणियों द्वारा अभेद्य लोहपुरुष और अधिष्ठायक देव भी स्थापित किए गए। इस प्रकार राजा ने 'सिंहनिषघा' नामक प्रासाद का विधिवत् निर्माण करके उसमें मुनिवृन्द द्वारा उत्सवपूर्वक प्रतिष्ठा करवाई। इसके बाद पवित्र और सफेद वस्त्र धारण किए हुए उन्होंने जिनमन्दिर में प्रवेश किया और 'निसीही' करके चैत्य की तीन बार प्रदक्षिणा की। इसके पश्चात् पवित्र जल से प्रतिमाओं का अभिषेक करके कोमल वस्त्रों द्वारा, मानो सूर्य को उत्तेजित करते हों इस तरह, उन्हें पोंछा। सुगन्ध से युक्त सुन्दर चाँदनी के समूह जैसे चन्दन से चक्रवर्ती ने, अपने यश से जिस तरह पृथ्वी पर लेप किया था उस तरह, उन प्रतिमाओं पर लेप किया। इसके बाद सुगन्धी और अनेक प्रकार के वर्णवाले फूलों Bharat Chakravarti 33 312 20
SR No.009858
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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