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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth कर गौतम स्वामी का हृदय उल्लास से सराबोर हो गया, हृदय परम आनन्द से खिल उठा । भक्ति-पूर्वक स्तवना की । सायंकाल हो जाने के कारण मन्दिर के बाहर शिला पर ही ध्यानावस्था में रात्रि व्यतीत की ।।२७।। - गौतमरास परिशीलन - महोपाध्याय विनयसागरजी पेज ११८-१२० श्री गौतमाष्टकम् में भी अष्टापद का विवरण इस प्रकार है - अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वाच्छितं मे ।।५।। जैन शास्त्रों में अष्टापद तप का वर्णन मिलता है... आश्विनेऽष्टाह्निकास्वेव यथाशक्ति तपःक्रमैः । विधेयमष्ट वर्षाणि तप अष्टापदं परम् ।। अष्टापद पर्वत पर चढ़ने का तप अष्टापद पावड़ी तप कहलाता है । इसमें आसो सुद आठम से पूर्णिमा तक के आठ दिन को एक अष्टान्हिका (ओली) कहते हैं । उन दिनों में यथाशक्ति उपवासादि तप करना । पहली ओली में तीर्थंकर के पास स्वर्णमय एक सीढ़ी बनवाकर रखना । तथा उसकी अष्टप्रकारी पूजा करना । इस तरह आठ वर्ष तक आठ सीढ़ियाँ स्थापित कर तप करना । उद्यापन में बड़ी स्नात्र विधि से चौबीस-चौबीस पकवान, फल आदि रखना । इस तप को करने से दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति होती है । यह श्रावक को करने का अगाढ़ तप है ।। इसमें श्री अष्टापदतीर्थाय नमः पद की बीस माला गिनना । स्वस्तिक आदि आठ-आठ करना । दूसरी विधि : कार्तिक वदी अमावस्या से शुरू कर एकान्तरे आठ उपवास करना । पारणे के दिन एकासना करना । इस प्रकार आठ वर्ष करना । उद्यापन में अष्टापद पूजा, घृतमय गिरि की रचना, स्वर्णमय आठ-आठ सीढ़ी वाली आठ निसरणी बनवाना । पकवान, तथा सर्व जाति के फल चौबीस-चौबीस रखना । दूसरी सब वस्तुएँ आठ-आठ रखना । (जैन प्रबोध में इस तप को अष्टापद ओली भी कहा है) - तप रत्नाकर - पृष्ठ. २१६ अष्टापद का विवरण रविषेण के पद्मपुराण (तीर्थ वन्दन संग्रह पृष्ठ-९) में भी मिलता है। गुर्जर फागु काव्य के पृष्ठ २१२ में कवि समरकृत अष्टापद फागु का परिचय प्रकाशित है जो ६४ गाथाओं की रचना है । पाटण के हेमचन्द्राचार्य ज्ञानभण्डार में इसकी हस्तलिखित अप्रकाशित प्रत मौजूद है। श्री धर्मघोष सूरि द्वारा रचित अष्टापद महातीर्थ कल्प में अष्टापद पर्वत के महात्मय का वर्णन किया गया है - (देखिए पृ. ७०) आचार्य जिनसेन ने अपने पुराण में अष्टापद को कैलाश के रूप में उल्लेख किया है । उन्होंने कैलाश में भगवान् ऋषभदेव के समवसरण का वर्णन किया है जहाँ सम्राट भरत उनके दर्शन को जा रहे हैं इसका वर्णन इस प्रकार है - अनुगंगातटं देशान् विलंघय ससरिगिरीन् । कैलासशैलसान्निध्य-क्रिणो बलम् ॥११॥ कैलासाचलमभ्यर्णमथालोक्य रथांगभृत् । निवेश्य निकटे सैन्यं प्रययौ जिनमर्चितुम् ॥१२॥ चक्रवर्ती की वह सेना गंगा नदी के किनारे-किनारे अनेक देश, नदी और पर्वतों को उल्लंघन करती हुई क्रम से कैलाश पर्वत के समीप जा पहुँची ।।११।। तदनन्तर चक्रवर्ती ने कैलाश पर्वत को समीप ही देखकर Adinath Rishabhdev and Ashtapad 6 190
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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