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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth गौतम स्वामी चरित्र के अन्तर्गत अष्टापद का उल्लेख (सं. ९२५) अभयदेवसूरि के भगवती सूत्र की टीका (सं. ११२८) देवभद्राचार्य के महावीर चरियं (सं. ११३९) हेमचन्द्राचार्य के त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में मिलता है। महोपाध्याय विनयप्रभ रचित गौतम रास में वर्णन है - जउ अष्टापद सेल, वंदइ चढी चउवीस जिण, आतम-लब्धिवसेण, चरम सरीरी सो य मुणि । इय देसणा निसुणेह, गोयम गणहर संचरिय, तापस पनर-सएण, तउ मुणि दीठउ आवतु ए ॥२५।। गणधर गौतम की जिज्ञासा थी कि-मैं चरम शरीरी हूँ या नहीं अर्थात् इसी मानव शरीर से, इसी भव में मैं निर्वाण पद प्राप्त करूँगा या नहीं ? महावीर ने उत्तर दिया-आत्मलब्धि-स्ववीर्यबल से अष्टापद पर्वत पर जाकर भरत चक्रवर्ती निर्मित चैत्य में विराजमान चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना जो मुनि करता है, वह चरम शरीरी है । प्रभु की उक्त देशना सुनकर गौतम स्वामी अष्टापद तीर्थ की यात्रा करने के लिये चल पड़े। । उस समय अष्टापद पर्वत पर आरोहण करने हेतु पहली, दूसरी और तीसरी सीढ़ियों पर क्रमशः पाँच सौ-पाँच सौ और पाँच सौ करके कुल पन्द्रह सौ तपस्वीगण अपनी-अपनी तपस्या के बल पर चढ़े हुए थे । उन्होंने गौतम स्वामी को आते देखा । ।।२५।। तप सोसिय निय अंग, अम्हां सगति ने उपजइ ए, किम चढसइ दिढकाय, गज जिम दीसइ गाजतउ ए । गिरुअउ इणे अभिमान, तापस जो मन चिंतवइ ए, तउ मुनि चढियउ वेग, आलंबवि दिनकर किरण ए ॥२६।। गौतम स्वामी को अष्टापद पर्वत पर चढ़ने के लिए प्रयत्नशील देखकर वे तापस मन में विचार करने लगे-यह अत्यन्त बलवान मानव जो मदमस्त हस्ति के समान झूमता हुआ आ रहा है, यह पर्वत पर कैसे चढ़ सकेगा? असम्भव है, लगता है कि उसका अपने बल पर सीमा से अधिक अभिमान है | अरे ! हमने तो उग्रतर तपस्या करते हुए स्वयं के शरीरों को शोषित कर, अस्थि-पंजर मात्र बना रखा है, तथापि हम लोग तपस्या के बल पर क्रमशः एक, दो, तीन सीढ़ियों तक ही चढ़ पाये, आगे नहीं बढ़ पाये । तापसगण सोचते ही रहे और उनके देखते ही देखते गौतम स्वामी सूर्य की किरणों के समान आत्मिक बलवीर्य का आलम्बन लेकर तत्क्षण ही आठों सीढ़ियाँ पार कर तीर्थ पर पहुँच गये ।।२६।। कंचन मणि निष्फन्न, दण्ड-कलस ध्वज वड सहिय, पेखवि परमाणंद, जिणहर भरहेसर महिय । निय निय काय प्रमाण, चिह दिसि संठिय जिणह बिम्ब, पणमवि मन उल्लास, गोयम गणहर तिहां वसिय ।।२७।। अष्टापद पर्वत पर चक्रवर्ती भरत महाराज द्वारा महित पूजित जिन-मन्दिर मणिरत्नों से निर्मित था, दण्डकलश युक्त था, विशाल ध्वजा से शोभायमान था । मन्दिर के भीतर प्रत्येक तीर्थंकर की देहमान के अनुसार २४ जिनेन्द्रों की रत्न मूर्तियाँ चारों दिशाओं में ४, ८, १०, २ विराजमान थीं । मन्दिरस्थ जिन मूर्तियों के दर्शन -23 189 - - Adinath Rishabhdev and Ashtapad
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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