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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. स्वयं ज्योतिर्विद थे फिर भी वे अपनी बेचैनी को शान्त करने के लिए पिता के पास कैलाश पर्वत पर पहुँचे और उनसे उन स्वप्नों का अर्थ समझाने की प्रार्थना की। भगवान् ऋषभदेव ने उन स्वप्नों का जो स्पष्टीकरण किया और भविष्यवाणी की वह वास्तव में स्तब्ध कर देने वाली है और यह सोचने और विचारने को बाध्य कर देने वाली है कि हजारों वर्षों पहले ही स्वप्नों के आधार पर भविष्य-वाणी भारत में होने लग गई थी। उनका वह स्वप्न-भविष्य कितना सत्य था आश्चर्य होता है।" (जैन ज्योतिष के प्राचीनतमत्व पर संक्षिप्त विवेचन) जैन वाङ्मय में आयुर्वेद का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बारह अंगों में अन्तिम अंग दृष्टिवाद में प्राणवाय एक पूर्व माना गया है जो आज अनुपलब्ध है। स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र, नन्दीसूत्र आदि में इसका उल्लेख मिलता है। इस प्राणवाय नामक पूर्व में अष्टांगायुर्वेद का वर्णन है। जैन मत से आयुर्वेद की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पं. व्ही. पी. शास्त्री ने उग्ररादित्याचार्य कृत "कल्याणककारक" के सम्पादकीय में लिखा है कि इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में महर्षि ने प्राणावाय शास्त्र की उत्पत्ति के विषय में प्रमाणिक इतिहास लिखा है । ग्रन्थ के आदि में श्री आदिनाथ स्वामी को नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् प्राणावाय का अवतरण कैसे हुआ और उसकी स्पष्टतः जनसमाज तक परम्परा कैसे प्रचलित हुई इसका स्पष्ट रूप से वर्णन ग्रन्थ के प्रस्ताव अंश में किया गया है जो इस प्रकार है श्री ऋषभदेव के समवसरण में भरत चक्रवर्ती आदि भव्यों ने पहुंचकर श्री भगवन्त की सविनय वन्दना की और भगवान् से निम्नलिखित प्रकार से पूछने लगे "ओ स्वामिन ! पहले भोग भूमि के समय मनुष्य कल्पवृक्षों से उत्पत्र अनेक प्रकार के भोगोपभोग सामग्रियों से सुख भोगते थे। यहाँ भी खूब सुख भोगकर तदनन्तर स्वर्ग पहुँचकर वहाँ भी सुख भोगते थे। वहाँ से फिर मनुष्य भव में आकर अपने-अपने पुण्यकर्मों के अनुसार अपने-अपने इष्ट स्थानों को प्राप्त करते थे। भगवन् ! अब भारतवर्ष को कर्मभूमि का रूप मिला है। जो चरम शरीरी हैं व जन्म लेने वाले हैं उनको तो अब भी अपमरण नहीं है। इनको दीर्घ आयुष्य प्राप्त है। परन्तु ऐसे भी बहुत से मनुष्य पैदा होते हैं जिनकी आयु नहीं रहती और उनको वात, पित्त, कफादि दोषों का उद्वेग होता रहता है। उनके द्वारा कभी शीत और कभी उष्ण व कालक्रम से मिथ्या आहार सेवन करने में आता है। जिससे अनेक प्रकार के रोगों से पीडित होते हैं। इसलिये उनके स्वास्थ रक्षा के लिये योग्य उपाय बतायें। इस प्रकार भरत के प्रार्थना करने पर आदिनाथ भगवान् ने दिव्य-ध्वनि के द्वारा लक्षण, शरीर, शरीर के भेदों, दोषोत्पत्ति, चिकित्सा, काल भेद आदि सभी बातों का विस्तार से वर्णन किया।" इस प्रकार दिव्यवाणी के रूप में प्रकट समस्त परमार्थ को साक्षात् गणधर ने प्राप्त किया। उसके बाद गणधर द्वारा निरूपित शास्त्र को निर्मल बुद्धि वाले मुनियों ने प्राप्त किया। इस प्रकार श्री ऋषभदेव के बाद यह शास्त्र तीर्थंकर महावीर तक चलता रहा। दिव्यध्वनी प्रकटितं परमार्थजातं साक्षातया गणधरोऽधिजगे समस्तम्। पश्चात् गणाधिपते निरुपित वाक्यप्रपंचमष्टाधी निर्मलधियों मुनयोऽधिजग्मुः।। एवंजिनातंर निबन्धनसिद्धमार्गादायातमापतमनाकुलमर्थगाढम् । स्वायांभुवं सकलमेव सनातनं तत् साक्षाच्छुतश्रुतदलैः श्रुत केवलीभ्य ।। स्पष्ट है कि तीर्थंकरों ने प्राणावाय परम्परा का ज्ञान प्रतिपादित किया। फिर गणधरों प्रतिगणधरों, श्रुतकेवलियों, मुनियों ने सुनकर प्राप्त किया। -जैन आयुर्वेद - एक परिचय - अर्हत वचन, वर्ष - १२, अंक -३ Adinath Rishabhdev and Ashtapad 6 172
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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