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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth (१।३) इसका अर्थ है जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह तपस्वी श्रमण है। भागवत ने वातरशना योगी, श्रमण, ऋषि को ऊर्ध्वगामी कहा है। ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव है किन्तु कर्मों का भार उसे बहुत ऊँचाई तक नहीं जाने देता। जब जीव कर्मबन्धन से नितांत मुक्त हो जाता है तब अपने स्वभावानुसार लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन करता है। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कथन है कि-तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्या लोकान्तात् (१०।५) अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने के बाद तुरन्त ही मुक्तजीव लोक के अन्त तक ऊँचे जाता है। जैन शास्त्रों में जहाँ भी मोक्षतत्त्व का वर्णन आया है वहाँ पर मुक्तजीव के ऊर्ध्वगमन का विस्तार से वर्णन मिलता है। इसी संदर्भ में वैदिक ऋषियों ने वातरशना श्रमण के लिए ही किया है। और ऋषभदेव को इसका प्रवर्तक कहा है। अतः ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर थे यह वैदिक साहित्य भी स्वीकार करता है। बट्टोपाध्याय के अनुसार जो नाथ सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ वह जैनियों के तीर्थंकर और उनके शिष्य सम्प्रदाय से हुआ। मीननाथ के गुरु थे आदिनाथ अर्थात् ऋषभनाथ । “जैन मान्यतानुसार ज्योतिष, गणित, व्याकरण आदि के प्रथम ज्ञाता तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। इस विषय में वैद्य प्रकाश चन्द्र पांड्या ने अपने लेख 'जैन ज्योतिष की प्राचीनत्वता' में लिखा है कि "ऋग्वेद में ऋषभ का उल्लेख अनेक जगहों में आया है और उनको पूर्णतः ज्योतिषी बतलाया है"। "प्रे होत्रे पूर्व्यव चोडग्नये भरता वृहत। विपी ज्योतिषी विभ्रते न वेधसे॥५॥७॥" ___-ऋग्वेद मं ३ अ० १ सूत्र १० ऋग्वेद के उक्त मंडल के आगे पीछे के अन्य सूत्रों और प्रसंग को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद की यह ऋचा ऋषभ या वृषभ के लिये रची गयी है। उन्होंने ७२ विद्याएँ सिखाईं उनमें ज्योतिषी विद्या भी एक विद्या थी। इसीलिये वैदिक ऋषि वृषभ की वंदना करते हुए ऋग्वेद में लिखते हैं - “आ नो गोत्रा दर्द्धहि गो पते गाः समस्मभ्यं सु नयो यंतुवाजा दिवक्षा अति वृषभ सत्य शुष्मोडस्मभ्यं सु मघवन्बोधि गोदा ॥२१॥" -ऋग्वेद, मंडल ३ अ० २ सू० ३० अर्थात् - हे पृथ्वी के पालक देव। हमें नय सहित वाणियों को प्रदान कर आदरयुक्त बना, जिससे हम अपनी वृत्तियों और इन्द्रियों को संयत रख सकें। हे वृषभ तू सूर्य के समान सब दिशाओं में प्रकाशमान है और तू सत्य के कारण बलवान है। हे ऐश्वर्यमय माघवन ! हमें सुबोधि प्रदान कर। बौद्धों के धर्मकीर्ति द्वारा रचित प्रख्यात ग्रन्थ 'न्यायबिन्दु' में जैन तीर्थंकर भगवान् ऋषभ और महावीर आदि को ज्योतिष-ज्ञान में पारगामी होने के कारण सर्वज्ञ लिखा है "यः सर्वज्ञ आप्तो वास ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टावान् । तद्यथा ऋषभ वर्धमानादिरिति॥" "इस प्रकार जैनेतर साहित्य के अनुसार आदि ज्योतिषी भगवान् वृषभ या ऋषभ सिद्ध हो जाते हैं। जैन-पुराणों और कथाओं के आधार पर तो वे पूर्णतः ज्योतिषज्ञ हैं। जिनसेनाचार्य के "आदि पुराण" के अनुसार जो हालांकि वेदों से बाद की रचना है, वृषभ या ऋषभ के पुत्र भरत को एक बार रात को सोलह स्वप्न आये थे और उन स्वप्नों का जब अर्थ भरत ठीक-ठाक लगाने में असमर्थ रहे, यद्यपि वे -23 171 - Adinath Rishabhdev and Ashtapad
SR No.009856
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages72
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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