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Shri Ashtapad Maha Tirth
अट्ठावयसेलोवरि, मासं गमिऊण तत्थ दहवयणो । अणुचरिउं पच्छित्तं, वालिमुणिन्दं खमावेइ ।।१०३।। जिणहरपयाहिणं सो, काऊण दसाणणो तिपरिवारे । पत्तो निययपुरवरं, थुघन्तो मङ्गलसएसु ॥१०४॥ झाणाणलेण कम्म, दहिऊण पुराकयं नरवसेसं । अक्खयमयलमणहरं, वाली सिवसासयं पत्तो ॥१०५।। एवंविहं वालिविचेट्ठियं जे, दिणावि सघाणि सुणन्ति तुट्ठा । काऊण कम्मक्खयदुक्खमोक्खं, ते जन्ति ठाणं विमलं कमेणं ॥१०६॥
पउमचरियं के तीर्थंकर आदिके भवोंका अनुकीर्तण नामक बीसवें उद्देश में जिनवरोंके नगरी, माता व पिता, नक्षत्र, वृक्ष एवं निर्वाणगमनस्थान ये सब कहा है जिसमें से ऋषभदेव भगवान का संदर्भ - तीर्थकराणां जन्मनगर्यः माता-पितवः नक्षत्राणि ज्ञानपादपाः निर्वाणस्थानं च
साएयं मरुदेवी, नाही तह उत्तरा य आसाढा । वडरुक्खो अट्ठावय, पढमजिणो मङ्गलं दिसउ ।।२७।। अट्ठावयम्मि उसभो, सिद्धो चम्पाएँ वासुपुज्जजिणो । पावाएं वद्धमाणो, नेमी उज्जेन्तसिहरम्मि ॥५१॥ अवसेसो तित्थयरा, सम्मेए निव्वुया सिवं पत्ता । जो पढइ सुणइ पुरिसो, सो बोहिफलं समज्जेइ॥५२ ।।
वाली से रावण ने क्षमायाचना की। (१०३) चैत्यकी प्रदक्षिणा करके शतशः मंगलों से स्तुति करता हुआ दशानन सपरिवार अपने नगरमें आ पहुँचा। (१०४) इधर वाली ने भी ध्यानरूपी अग्नि से पहले के किये हुए कर्मों को समूल जलाकर अक्षत, निर्मल, मनोहर और शाश्वत सुखरूप मोक्षपद प्राप्त किया। (१०५) इस प्रकार वाली के सुचरित को जो तुष्ट होकर सब दिन सुनते हैं वे कर्म का क्षय करके तथा दुःख से मुक्त हो क्रमशः विमल मोक्षस्थान प्राप्त करते हैं। (१०६)
तीर्थंकर आदि के भवों का अनुकीर्तन :
साकेत नगरी, मरुदेवी माता तथा नाभि पिता उत्तराषाढ़ा नक्षत्र वट वृक्ष तथा अष्टापद पर्वत-प्रथम जिन ऋषभदेव तुम्हारा कल्याण करें।
अष्टापद पर्वत पर ऋषभदेव, चम्पा में वासुपूज्य जिन, नेमिनाथ उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर तथा वर्धमान स्वामी पावापुरी में सिद्ध हुए। (५१) बाकी के तीर्थंकर सम्मेतशिखर पर मुक्त होकर मोक्ष में पहुंचे हैं । जो पुरुष इसे पढ़ता है और सुनता है वह सम्यक्त्वका फल प्राप्त करता है । (५२)
Paumachariyam -
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