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Shri Ashtapad Maha Tirth
अष्टापदस्थ जिनस्तुति : मोहन्धयारतिमिरं, जेणेयं नासियं चिरपरुढं । केवलकरेसु दूरं, नमामि तं उसभजिणभाणुं ॥१०॥ अजियं पि संभवजिणं, नमामि अभिनन्दणं सुमइनाहं । पउमप्पहं सुपासं, पणओ हं ससिपभं भयवं ॥९१ ।। थोसामि पुप्फदन्तं, दन्तं जेणिन्दियारिसंघायं । सिवमग्गदेसणयरं, सीयलसामिं पणमिओ हं ॥९२।। सेयंसजिणवरिन्दं, इन्दसमाणन्दियं च वसुपुज्जं । विमलं अणन्त धम्म, अणन्नमणसो पणिवयामि ॥९३।। सन्तिं कुन्थु अरजिणं, मल्लिं मुणिसुव्वयं नमि नेमिं । पणमामि पास वीरं भवनिग्गमकारणट्ठाए ॥१४॥ जे य भविस्सन्ति जिणा, अणगारा गणहरा तवसमिद्धा । ते वि हु नमामि सव्वे, वाया-मण-कायजोएसु ।।१५।। गायन्तस्स जिणथुई, धरणो नाऊण अवहिविसएण । अह निग्गओ तुरन्तो, अट्ठावयपव्वयं पत्तो ॥१६॥ काऊण महापूयं, वन्दित्ता जिणवरं पयत्तेणं । अह पेच्छह दहवयणं, गायन्तं पङ्कयदलच्छं ।।९७॥ तो भणइ नागराया, सुपुरिस ! अइसाहसं ववसियं ते । जिणभत्तिरायमउलं, मेरुं पिव निच्चलं हिययं ॥९८ ।। तुट्ठो तुहं दसाणण, जिणभत्तिपरायणस्स होऊणं । वत्थु मणस्स इटुं, जं मग्गसि तं पणावेमि ॥१९॥ लङ्काहिवेण सुणिउं, धरणो फणमणिमऊहदिप्पन्तो । भणिओ किं न य लद्धं, जिणवन्दणभत्तिराएण? ॥१००।। अहिययरं परितुट्ठो, धरणिन्दो भणइ गिण्हसु पसत्था । सत्ती अमोहविजया, जा कुणइवसे सुरगणा वि ॥१०१।। अह रावणेण सत्ती, गहिया अहिउजिऊं सिरपणामं । धरणो वि जिणवरिन्द, थोऊण गओ निययठाणं ॥१०२।।
को मैं नमस्कार करता हूँ। (८९-९०) अजित, सम्भव, जिनेश्वर, अभिनन्दन तथा सुमतिनाथ को प्रणाम करता हूँ। पद्मप्रभ, सुपार्श्व तथा भगवान् शशिप्रभ (चन्द्रप्रभ) को मैं वन्दन करता हूँ। (९१) इन्द्रियरूपी शत्रुसमूह का दमन करनेवाले पुष्पदन्त की मैं स्तुति करता हूँ। शिव-मार्ग का उपदेश देनेवाले शीतल स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ। (९२) जिनवरों में इन्द्रतुल्य श्रेयांस को, इन्द्रों को आनन्द देनेवाले वासुपूज्य स्वामी को तथा विमल, अनन्त और धर्म को अनन्य मन से प्रणाम करता हूँ। (९३) शान्ति, कुंथु, अर, जिनेश्वर, मल्लि, मुनिसुव्रतस्वामी, नमि, नेमि, पार्श्व तथा महावीरस्वामी को जन्म के चक्र में से बाहर निकलने के लिए प्रणाम करता हूँ। (९४) भविष्य में जो जिन, अनगार, गणधर और तप से समृद्ध तपस्वी होंगे उन सबको मैं मन, वचन एवं काय इन तीनों प्रकार के योग से नमस्कार करता हूँ। (९५) धरणेन्द्र से शक्ति की प्राप्ति और स्वदेशगमन : ___ इस प्रकार रावण जब स्तुति कर रहा था अवधिज्ञान से जानकर धरणेन्द्र फौरन अपने स्थान से निकला और अष्टापद पर आ पहुँचा। (९६) बड़ी भारी पूजा करके तथा आदरपूर्वक जिनवरों को वन्दन करके उसने कमलदल के समान नेत्रों वाले रावण को गाते हुए देखा। (९७) इसके बाद नागराज धरणेन्द्र ने कहा- 'हे सुपुरुष ! तुमने यह एक बहुत बड़ा साहस किया है। जिनेश्वर के ऊपर तुम्हारा भक्तिराग अतुल है और तुम्हारा हृदय मेरु पर्वत की भाँति अविचल है। (९८) हे दशानन ! तुम जिनवर की भक्ति में निरत हो, इसलिए मैं तुम पर प्रसन्न हुआ हूँ। तुम्हारे मन में जो इष्ट वस्तु हो वह माँगो। मैं उसे हाज़िर करता हूँ। (९९) फणों में स्थित मणियों में से निकलनेवाली किरणों से देदीप्यमान धरणेन्द्र का ऐसा कथन सुनकर लङ्काधिप रावण ने कहा कि जिनेश्वरदेव के वन्दन से तथा उनमें जो भक्तिराग है उससे मुझे क्या नहीं मिला ? अर्थात् सब कुछ मिला है। (१००) इस उत्तर से और भी अधिक प्रसन्न होकर धरणेन्द्र ने कहा कि जिससे देवगण भी वश में किये जा सकते हैं ऐसी अमोघविजया शक्ति तुम ग्रहण करो। (१०१) इसके पश्चात् सिर से प्रणाम करके रावण ने वह शक्ति ग्रहण की। उधर धरणेन्द्र भी जिनवरेन्द्र की स्तुति करके अपने स्थान पर चला गया। (१०२) उस अष्टापद पर्वत के ऊपर एक मास व्यतीत करके मुनीन्द्र -83 21
-Paumachariyam