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Shri Ashtapad Maha Tirth.
आचार को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है, अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत ग्रहण करना व उसका पालन करना कठिन है, परन्तु मध्य के तीर्थङ्करों के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना एवं उसका पालन करना सरल है । यहाँ पर भगवान् ऋषभदेव के श्रमणों के स्वभाव का चित्रण किया गया है, किन्तु स्वयं ऋषभदेव का नहीं । ३१
प्रस्तुत सूत्र के पच्चीसवें अध्ययन में जयघोष मुनि ने विजयघोष ब्राह्मण से कहा- 'वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है एवं धर्मों का मुख काश्यप ऋषभदेव हैं । ३२
जिस प्रकार चन्द्रमा के सम्मुख यह आदि हाथ जोड़े हुए वन्दना - नमस्कार करते हुए और विनीत भाव से मन का हरण करते हुए रहते हैं उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव के सम्मुख सब लोग रहते हैं । ३३ ८. कल्पसूत्र"
कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कन्ध का अष्टम अध्ययन है, इसमें चौबीस तीर्थकरों का संक्षेप में परिचय दिया गया है। भगवान् ऋषभदेव के पञ्चकल्याणक का उल्लेख किया है, उसके पश्चात् उनके माता-पिता, जन्म, उनके पाँच नाम और दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि ऋषभदेव ने दीक्षा के समय चारमुष्टि केशलोंच किया था जिसका इसमें उल्लेख है । अन्य तीर्थङ्करों के समान पञ्चमुष्टि केशलोंच नहीं किया । दीक्षा के एक हजार वर्ष पश्चात् उन्हें केवलज्ञान हुआ । प्रस्तुत सूत्र में उनकी शिष्य - सम्पदा का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
कल्पसूत्र के मूल में ऋषभदेव के पूर्वभवों का उल्लेख नहीं है, किन्तु कल्पसूत्र की वृत्तियों में उनके पूर्वभव व अन्य जीवन प्रसंगों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
* निर्युक्ति साहित्य में ऋषभदेव :
मूल ग्रन्थों पर व्याख्यात्मक साहित्य लिखने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है । समवायांग, स्थानांग और नन्दी में जहाँ पर द्वादशांगी का परिचय प्रदान किया गया है वहाँ पर प्रत्येक सूत्र के सम्बन्ध में 'संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ' यह उल्लेख है । इससे यह स्पष्ट है कि नियुक्तियों की परम्परा आगम काल में भी थी। उन्हीं नियुक्तियों के आधार पर बाद में भी आचार्य रचना करते रहे होगें और उसे अन्तिम रूप द्वितीय भद्रबाहु ने प्रदान किया। जैसे वैदिक परम्परा में पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिये यास्क महर्षि ने निघण्टुभाष्य रूप निरुक्त लिखा वैसे ही जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने प्राकृत पद्य में नियुक्तियों की रचना की । शैली सूत्रात्मक एवं पद्यमय है।
१. आवश्यक निर्युक्तिः"
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आचार्य द्वितीय भद्रबाहु ने दस निर्युक्तियों की रचना की है, उनमें आवश्यक निर्युक्ति का प्रथम स्थान है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर विस्तृत और व्यवस्थित चर्चाएँ की गई हैं। प्राचीन जैन इतिहास को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने का यह सर्वप्रथम एवं प्रामाणिक प्रयत्न हुआ है। इसमें भगवान् महावीर
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वही, अ. २५, गा. १७ ।
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कल्पसूत्रः श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान, गढ़ सिवाना, सम्पादक ३५ आवश्यक निर्युक्ति, पूर्वभाग, प्रकाशक- श्री आगमोदय समिति, सन् १९२८ ।
उत्तराध्ययनसूत्र, २३ अध्ययन, गाथा २६,२७।
...... धम्माणं कासवो मुहं ॥ - उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २५, गा. १६
Rushabhdev: Ek Parishilan
- 230 a
श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री, सन् १९६८ ।