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उत्तर प्रान्तीय जैनेतर वर्ग में प्रस्तुत शिवरात्रि पर्व फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को माना जाता है। उत्तर तथा दक्षिण देशीय पंचांगों में मौलिक भेद इसका मूल कारण है उत्तरप्रान्त में मास का प्रारम्भ कृष्ण पक्ष से माना जाता है और दक्षिण में शुक्ल पक्ष से । प्राचीन मान्यता भी यही है । जैनेतर साहित्य में चतुर्दशी के दिन ही शिवरात्रि का उल्लेख मिलता है। ईशान संहिता में लिखा है
माघे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ।
Shri Ashtapad Maha Tirth
प्रस्तुत उद्धरण में जहाँ इस तथ्य का संकेत है कि माघ कृष्णा चतुर्दशी को ही शिवरात्रि मान्य किया जाना चाहिए, वहाँ उसकी मान्यतामूलक ऐतिहासिक कारण का भी निर्देश है कि उक्त तिथि की महानिशा में कोटि सूर्य प्रभोपम भगवान् आदिदेव (वृषभनाथ) शिवरात्रि प्राप्त हो जाने से शिव इस लिंग (चिह्न) से प्रकट हुए-अर्थात् जो शिव पद प्राप्त होने से पहले आदिदेव कहे जाते थे, वे अब शिव पद प्राप्त हो जाने से शिव कहलाने लगे ।
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उत्तर तथा दक्षिण प्रान्त की यह विभिन्नता केवल कृष्ण पक्ष में ही रहती है, पर शुक्ल पक्ष के सम्बन्ध में दोनों ही एक मत हैं । जब उत्तर भारत में फाल्गुन कृष्णपक्ष प्रारम्भ होगा तब दक्षिण भारत का वह माघ कृष्ण पक्ष कहा जायेगा। जैनपुराणों के प्रणेता प्राय दक्षिण भारतीय जैनाचार्य रहे हैं, अतः उनके द्वारा उल्लिखित माघ कृष्ण चतुर्दशी उत्तर भारतीय जन की फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी ही हो जाती है। कालमाघवीय नागर खण्ड में प्रस्तुत माघवैषम्य का निम्न प्रकार समन्वय किया गया है
माघ मासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गुणस्य च ।
कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता ।
अर्थात् दक्षिणात्य जन के माघ मास के शेष अथवा अन्तिम पक्ष की और उत्तरप्रान्तीय जन के फाल्गुन के प्रथम मास की कृष्ण चतुर्दशी शिवरात्रि कही गई है। (ऋषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ)
इस प्रकार वैदिक साहित्य में माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन आदिदेव का शिव लिंग के रूप में उद्भव होना माना गया है और भगवान् आदिनाथ के शिव पद प्राप्ति का इससे साम्य प्रतीत होता है। अतः यह सम्भव है कि भगवान् ऋषभदेव की निषद्या (चिता स्थल) पर जो स्तूप का निर्माण किया गया वही आगे चलकर स्तूपाकार चिह्न शिवलिंग के रूप में लोक में प्रचलित हो गया है।
भगवान् ऋषभदेव का निर्वाण होते ही सौधर्मेन्द्र शक्र आदि ६४ इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । वे सब इन्द्र अपने-अपने विशाल देव परिवार और अद्भुत दिव्य ऋद्धि के साथ अष्टापद शिखर पर आए। देवराज शक्र की आज्ञा से देवों ने तीन चिताओं और तीन शिविकाओं का निर्माण किया । शक्र ने क्षीरोदक से प्रभु के पार्थिव शरीर को और दूसरे देवों ने गणधरों तथा प्रभु के शेष अन्तेवासियों के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाया। उन पर गोशीर्ष चन्दन का विलेपन किया गया । शक्र ने प्रभु के और देवों ने गणधरों तथा साधुओं के पार्थिव शरीरों को क्रमशः तीन अतीव सुन्दर शिविकाओं में रखा। जय जय नन्दा, जय जय मद्दा आदि जयघोष और दिव्य देव वाद्यों की तुमुल ध्वनि के साथ इन्द्रों ने प्रभु की शिविका को, और देवों ने गणधरों तथा साधुओं की दोनों पृथक् पृथक् शिविकाओं को उठाया। तीनों चिताओं के पास आकर एक चिता पर शक्र ने प्रभु के पार्थिव शरीर को रखा । देवों ने गणधरों के पार्थिव शरीर उनके अन्तिम संस्कार के लिए निर्मित दूसरी चिता पर और साधुओं के शरीर तीसरी चिता पर रखे । शक्र की आज्ञा से अग्निकुमारों ने क्रमशः तीनों चिताओं में
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Adinath Rishabhdev and Ashtapad